पेश हैं मुनव्वर राना की आखिरी मुशायरा


2024/05/06 14:20:21 IST

मुनव्वर राना

    मैं अपनी लड़खड़ाहट से परेशाँ हूँ मगर पोती, मिरी उँगली पकड़ कर दूर तक जाने को कहती है

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फ़ुट-पाथ

    सो जाते हैं फ़ुट-पाथ पे अख़बार बिछा कर, मज़दूर कभी नींद की गोली नहीं खाते

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दिन-रात

    भटकती है हवस दिन-रात सोने की दुकानों में, ग़रीबी कान छिदवाती है तिनका डाल देती है

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कश्ती

    जब भी कश्ती मिरी सैलाब में आ जाती है, माँ दुआ करती हुई ख़ाब आ जाती है

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माँ

    इस तरह मेरे गुनाहों को वो धो देती है, माँ बहुत ग़ुस्से में होती है तो रो देती है

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ग़ज़ल

    लिपट जाता हूँ माँ से और मौसी मुस्कुराती है, मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूँ हिन्दी मुस्कुराती है

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दुनिया

    मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं, तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं

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