ॐलोक आश्रम: हम सुखी कैसे हो सकते हैं भाग-3

हम इन्द्रियों के द्वारा वस्तुओं का उपभोग करते हैं लेकिन जब ये इन्द्रियां अन्तर्मुखी हो जाएं बाहर की किसी वस्तु की जरूरत न रहे आत्मा को खुश करने के लिए वो आत्मरति की अवस्था होती है। अन्तर्रात्मा खुश हो रही है वो बाहर चीजें ढूढ़ रही है।

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हम इन्द्रियों के द्वारा वस्तुओं का उपभोग करते हैं लेकिन जब ये इन्द्रियां अन्तर्मुखी हो जाएं बाहर की किसी वस्तु की जरूरत न रहे आत्मा को खुश करने के लिए वो आत्मरति की अवस्था होती है। अन्तर्रात्मा खुश हो रही है वो बाहर चीजें ढूढ़ रही है। वो ढूंढ़ रही है अच्छी खुशबू, अच्छा स्पर्श, अच्छा विजन इनके मिलने पर वो खुश होती है। एक ऐसी अवस्था आती है कि मेरी खुशी इन बाहर की चीजों पर निर्भर नहीं है। मैं अपनी इच्छाओं से मुक्त हो गया हूं, अपनी वासनाओं से मुक्त हो गया हूं।

मैं अभी तक बाहर के प्रकाश पर निर्भर था अपने अंदर देखने के लिए लेकिन जब मुझे बाहर के प्रकाश की जरूरत नहीं मेरे अंदर का ही दीपक जल गया तो उस दीपक ने खुशी की जो लौ जलाई उस लौ को ही भगवान कृष्ण कह रहे हैं आत्मरति। यह आत्मरति की अवस्था अगर व्यक्ति की आ गई तो जीवन में उसके लिए कोई ड्यूटी नहीं है उसका कोई भी काम नहीं है। वो कोई भी काम परिणामों के लिए नहीं करता वह काम स्वभाववश करता है। जैसे नदी बहती है बस बहती रहती है।

पशु आते हैं नदी का जल पी लेते हैं और खुश हो जाते हैं, पक्षी जल पी लेते हैं, मानव सिंचाई कर लेता है और खुश हो जाता है लेकिन नदी बहती रहती है। उसका उद्देश्य न किसी को पानी देना है न तो बाढ़ में दबाकर मारना है। कोई उद्देश्य नहीं है बस प्रकृति है और वह बह रही है। इसी तरह जो आत्मरति व्यक्ति होता है जिसने अपने इन्द्रियों पर नियंत्रण कर लिया है जिसकी इन्द्रियां अन्तर्मुखी हो गईँ हैं और जिसके अंदर परमात्मा की ज्योति जल गई है और उसे आनंद ही आनंद है उसके लिए कोई कर्तव्य नहीं है।

वह कोई कार्य किसी परिणाम के लिए नहीं करता। वो कोई कार्य खुश होने के लिए नहीं करता, वह कोई कार्य किसी को दुख देने के लिए नहीं करता, वह कोई कार्य ही नहीं करता उसका कोई भी कर्तव्य बाकी नहीं रहता, वह स्वभाववश ही कार्य करता रहता है। जैसे वायु अपने स्वभाव से चलती है, सूर्य अपने स्वभाव से चलता  है, अग्नि अपने स्वभाव से जलती है, पृथ्वी अपने स्वभाव से गति कर रही है। इसी तरह ऐसा व्यक्ति स्थितप्रज्ञ होकर अपनी अवस्था में स्थित होकर अपने आप में आनंद में विभोऱ होता हुआ चौबीस घंटे अपने आनंद में ही मग्न होकर अपने आप गति करता रहता है। अपने आप ही आनंद करता रहता है और अपने जीवन में अपने आप का ही उपभोग करता हुआ अनंत सुखों से युक्त होता है। यही जीवन का आदर्श है।

भगवान कृष्ण अर्जुन को बतलाते हुए कह रहे हैं कि वहां तक तुम्हें पहुंचना है जहां तुम अपने सुखों के लिए दूसरों पर आश्रित न रहो। अगर आप अपने सुखों के लिए दूसरों पर आश्रित रहोगे तो आपको कभी भी नित्य सुख नहीं मिलेगा क्योंकि दूसरा तो दूसरा ही है। कभी आपकी इच्छा की पूर्ति होगी तो कभी नहीं होगी। जो होगी तो आप खुश हो जाओगे जब नहीं होगी तो आप दुखी हो जाओगे। आपको एक ऐसा सुख मिलेगा जिसके मूल में दुख होगा। आपको सुख के छिन जाने की संभावना रहेगी। आपको दुखों के मिलने की संभावना रहेगी। कई बार आप दुखी भी हो जाएंगे लेकिन आत्मरति की अवस्था में यदि आप पहुंच गए तो एक ऐसा सुख मिलेगा जहां दुखों की स्थिति ही नहीं रहेगी और सुख ही सुख भाव में आप जीवन व्यतीत करते रहोगे।

First Updated : Tuesday, 23 August 2022