जब बुद्ध राजपाट का त्याग करके निकले तो वे दो आश्रमों में रुके उसके बाद आगे जा रहे थे तो पड़ोसी राज्य के राजा प्रसेनजीत ने बुद्ध से मिलने की इच्छा प्रकट की और वो बुद्ध से मिलने आए और उन्होंने कहा कि सिद्धार्थ अगर तुम्हें कोई जरूरत हो, तुम्हें सेनापति से नाराजगी हो या राज्य में किसी और से संकट हो तो मेरी सेना ले लो, मेरा समर्थन ले लो, मैं तुम्हारे साथ लोग भेज देता हूं और जाओ जीतो और आनंद प्राप्त करो। बुद्ध ने प्रसेनजीत से कहा कि न तो इस तरह का कोई संकट है मेरे ऊपर और अगर संकट है भी तो ये सेना आनंद नहीं दे सकती।
अगर संकट आनंद का है, और संकट मेरे अंदर है और सेना आपकी बाहर है तो बाहर की सेना मेरे अंदर के दुख को कैसे दूर कर सकती है। मेरे अंदर की हड़बड़ाहट को मेरे अंदर की बेचैनी को आपकी बाहर की सेना कैसे दूर कर सकती है। सेना तो शत्रुओं का नाश कर सकती है और शत्रु तो है ही नहीं। शत्रु तो अंदर है। प्रसेनजीत ने उस वक्त इस बात को नहीं समझा उसे लगा कि सिद्दार्थ कैसी पागलों जैसी बातें कर रहा है और वो वहां से चला गया।
जब घोर तपस्या के बाद बुद्ध को बौद्धत्व की प्राप्ति हुई, बोधिसत्व की प्राप्ति हुई, जब सिद्धार्थ बुद्ध बन गए तब वही प्रसेनजीत दोबारा बुद्ध से मिलने आया और तब उसने बुद्ध की बातों को समझा कि आत्मानुभूति क्या है, आत्मज्ञान क्या है, आनंद किसे कहते हैं। एक ऐसा आनंद जिसके लिए सारे राज्य को त्यागा जा सकता है। जिसके लिए सारे भौतिक सुखों को त्यागा जा सकता है। वह आनंद है और वह आनंद प्राप्त करने की एक विधा है एक प्रक्रिया है। भगवान कृष्ण भगवदगीता में उसके बारे में कह रहे हैं कि जो आत्मा में ही आनंद को प्राप्त कर रहा है, रति को प्राप्त कर रहा है, भोग कर रहा है, अपने आप का भोग कर रहा है। जो सुखों की उत्पत्ति होती है वो भोग से होती है।
हम इस संसार को भोगते हैं हम अच्छे खाद्य पदार्थों को भोगते हैं, अच्छी वस्तुओं का उपभोग करते हैं। सुंदर इत्रों का सुंदर पेय पदार्थों का, स्त्रियों का सबका उपभोग करते है और उस उपभोग से हमें आनंद की प्राप्ति होती है। भगवान कृष्ण कहते हैं कि अपना ही उपभोग है इसमें कोई दूसरा नहीं है और यही आनंद है। जिस तरह एक दीपक होता है वो सारे संसार को प्रकाशित करता ही है और खुद को भी प्रकाशित करता है उसी तरह आपकी यह आत्मा है जो आत्मा बाकी चीजों का उपभोग तो करती ही है उससे थोड़ा प्रकाश मिलता है थोड़ा आनंद मिलता है लेकिन आत्मा जब अंतर्मुखी हो जाए, जब इंन्द्रियां अन्तर्मुखी हो जाएं और आत्मा अपना ही उपभोग करने लगे, आत्मरति हो जाए तो अनंत आनंद की प्राप्ति होती है।
अगर कोई व्यक्ति ऐसा है जो इस अवस्था पर पहुंच गया है कि उसकी इन्द्रियों को आनंद के लिए बाहर किसी चीज की उपभोग की जरूरत नहीं है। आंखे सुंदर चीजों का उपभोग करती हैं हम सुंदर पहाड़ देखते हैं सुंदर नदियां देखते हैं समुद्र देखते हैं हम खुश होते हैं। हम बहुत दूर-दूर ट्रैवल करने जाते हैं उसका उद्देश्य क्या होता है। सुंदर प्राकृतिक छटा देखें उसके किनारे बैठें, अच्छी सुंदर हवा का आस्वाद लें हमें अच्छा लगेगा। हम इन्द्रियों के द्वारा प्रकृति का उपभोग करते हैं।
First Updated : Tuesday, 23 August 2022