ज़ख़्म खाना ही जब मुक़द्दर हो | अहमद महफूज़

ज़ख़्म खाना ही जब मुक़द्दर होफिर कोई फूल हो के पत्थर होमैं हूँ ख़्वाब-ए-गिराँ के नर्ग़े मेंरात गुज़रे तो मारका सर हो

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ज़ख़्म खाना ही जब मुक़द्दर हो

फिर कोई फूल हो के पत्थर हो


मैं हूँ ख़्वाब-ए-गिराँ के नर्ग़े में

रात गुज़रे तो मारका सर हो


फिर ग़नीमों से बे-ख़बर है सिपाह

फिर अक़ब से नुमूद लश्कर हो


क्या अजब है के ख़ुद ही मारा जाऊँ

और इल्ज़ाम भी मेरे सर हो


हैं ज़मीं पर जो गर्द-बाद से हम

ये भी शायद फलक का चक्कर हो


उस को ताबीर हम करें किस से

वो जो हद-ए-बयाँ से बाहर हो


देखना ही जो शर्त ठहरी है

फिर तो आँखों में कोई मंज़र हो

First Updated : Friday, 26 August 2022