ॐलोक आश्रम: दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं है, दूसरों को दुःख पहुँचाने के समान कोई पाप नहीं
हिंदू संस्कृति को यूँ ही नहीं हम सत्य सनातन अथवा सार्वभौमिक कहते है , हमारी धार्मिक धरोहर , रामायण , भगवद गीता , पुराण मनुष्य मात्र को प्राणियों में सद्भावना और विश्व के कल्याण की शिक्षा देते हैं , बस कमी है तो उनके अध्ध्यन की और इस जगत कल्याण के प्रचार की , ताकि सबको पता चले की सनातन धर्म का मूल क्या है
मंगल भवन अमंगल हारी।
द्रवउ सो दसरथ अजिर बिहारी।।
हिंदू संस्कृति को यूँ ही नहीं हम सत्य सनातन अथवा सार्वभौमिक कहते है , हमारी धार्मिक धरोहर , रामायण , भगवद गीता , पुराण मनुष्य मात्र को प्राणियों में सद्भावना और विश्व के कल्याण की शिक्षा देते हैं , बस कमी है तो उनके अध्ध्यन की और इस जगत कल्याण के प्रचार की , ताकि सबको पता चले की सनातन धर्म का मूल क्या है
रामचरितमानस के उत्तरकांड की चौपाईयां कहती है
पर हित सरिस धर्म नहिं भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥
निर्नय सकल पुरान बेद कर। कहेउँ तात जानहिं कोबिद नर॥
हे भाई! दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को दुःख पहुँचाने के समान कोई नीचता (पाप) नहीं है।*हे तात! समस्त पुराणों और वेदों का यह निर्णय (निश्चित सिद्धांत) मैंने तुमसे कहा है, इस बात को पण्डित लोग जानते हैं॥
नर सरीर धरि जे पर पीरा। करहिं ते सहहिं महा भव भीरा॥
लकरहिं मोह बस नर अघ नाना। स्वारथ रत परलोक नसाना॥
मनुष्य का शरीर धारण करके जो लोग दूसरों को दुःख पहुँचाते हैं, उनको जन्म-मृत्यु के महान् संकट सहने पड़ते हैं। मनुष्य मोहवश स्वार्थपरायण होकर अनेकों पाप करते हैं, इसी से उनका परलोक नष्ट हुआ रहता है॥
गोस्वामी तुलसीदास जी कितने सरल हृदय से जीव के कल्याण की बात करते है , ऐसे महाकाव्यों के मनन मात्र से जीव संसार से विमुक्त हो सकता है ।
तुलसीदास जी आगे लिखते है
कालरूप तिन्ह कहँ मैं भ्राता। सुभ अरु असुभ कर्म फलदाता॥
अस बिचारि जे परम सयाने। भजहिं मोहि संसृत दुख जाने॥
श्री भगावान कहते है , हे भाई! मैं उनके लिए कालरूप (भयंकर) हूँ और उनके अच्छे और बुरे कर्मों का (यथायोग्य) फल देने वाला हूँ! ऐसा विचार कर जो लोग परम चतुर हैं वे संसार (के प्रवाह) को दुःख रूप जानकर मुझे ही भजते हैं॥
त्यागहिं कर्म सुभासुभ दायक। भजहिं मोहि सुर नर मुनि नायक॥
संत असंतन्ह के गुन भाषे। ते न परहिं भव जिन्ह लखि राखे॥
इसी से वे शुभ और अशुभ फल देने वाले कर्मों को त्यागकर देवता, मनुष्य और मुनियों के नायक मुझको भजते हैं। (इस प्रकार) मैंने संतों और असंतों के गुण कहे। जिन लोगों ने इन गुणों को समझ रखा है, वे जन्म-मरण के चक्कर में नहीं पड़ते॥
दोहा :सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक।
गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अबिबेक॥
हे तात! सुनो, माया से रचे हुए ही अनेक (सब) गुण और दोष हैं (इनकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है)। गुण (विवेक) इसी में है कि दोनों ही न देखे जाएँ, इन्हें देखना ही अविवेक है ।
सशक्त समर्थ राष्ट्र बनाने के लिए समाज का शिक्षित होना इसीलिए आवश्यक है , यदि मनुष्य शिक्षित होगा तो उसे अपने मूल का ज्ञान होगा , और मूलतत्व यही है की सब धर्म संप्रदायों से पहले सम्पूर्ण जगत में सनातन धर्म था और वसुधेव कुटुम्बकम और विश्व के कल्याण के लिए सम्पूर्ण जगत में इसे स्थापित करने के सशक्त समर्थ शिक्षित सनातन धर्म की फिर से आवश्यकता है
चिंतक
ॐलोक आश्रम