ॐलोक आश्रम: जीवन का लक्ष्य क्या होना चाहिए? भाग-1

ॐलोक आश्रम: जीवन का लक्ष्य क्या होना चाहिए? भाग-1

Saurabh Dwivedi
Saurabh Dwivedi

भगवान कृष्ण गीता में बता रहे हैं कि जीवन का लक्ष्य क्या होना चाहिए। किस तरह हम निष्काम कर्म करते हुए, अपने समस्त कर्मों को प्रभु को समर्पित करते हुए जीवन में आगे बढ़ें और किस तरह हम आत्मतत्वों का साक्षात्कार करें। यह अल्टीमेट एम है लेकिन इस अल्टीमेट एम तक पहुंचने के लिए हमें उस बुद्धि से युक्त होना होगा जिसमें व्यक्ति अपने जीवन में संतुष्टि पाने के बाद, सांसारिक कर्मों में संतुष्टि पाने के बाद आगे बढ़ने की इच्छा रखता है। एक सामान्य व्यक्ति है जिसको शाम के भोजन का पता नहीं है कि मिलेगी कि नहीं। व्यक्ति बहुत सारे सांसारिक कर्मों में उलझा होता है। वो सोचता है कि उसे अच्छा घर मिल जाए। अच्छे कपड़े मिल जाएं, अच्छा भोजन मिल जाए, अच्छी नौकरी मिल जाए। इन चीजों में व्यक्ति उलझा होता है लेकिन जब व्यक्ति अपने मेहनत से, अच्छे कर्मों के द्वारा इस संसार में सफलता प्राप्त करता है और उसकी इच्छाएं तृप्त होने लगती हैं। उसके उत्तरादायित्व पूर्ण होने लगते हैं तब उसकी आध्यात्मिक इच्छा प्रकट होती है।

हर व्यक्ति के अंदर कई तरह की इच्छाएं होती हैं। पहले उसकी मूलभूत आवश्यकता है उसे अच्छा भोजन चाहिए, पानी चाहिए, रहने के लिए घर चाहिए ये मूलभूत आवश्यकताएं हैं। उसके बाद उसकी बौद्धिक आवश्कताएं हैं। उसको कला, साहित्य और खेल चाहिए। जब उसकी शारीरिक आवश्यकताएं, बौद्धिक आवश्यकताएं पूर्ण होने लगती हैं तब वह सोचने को विवश होता है कि मेरे जीवन का क्या लक्ष्य है। मैं क्यों पैदा हुआ हूं। यह एक ऐसी अवस्था आती है जब व्यक्ति अपनी मूलभूत चीजों से मूलभूत आवश्यताओं की पूर्ति करके या कुछ बौद्धिक आवश्यकताओं की पूर्ति करके संतुष्ट नहीं होता। अगर व्यक्ति के अंदर ये प्रश्न आ रहे हैं तो व्यक्ति को समझ लेना चाहिए कि उसके अंदर आध्यात्मिक इच्छाओं का उदय हो रहा है।

अगर व्यक्ति के अंदर ये इच्छाएं आ ही नहीं रही हैं, बौद्धिक इच्छा भी जागृत नहीं हो रही केवल भोगों को भोगने की इच्छा है। अच्छा खाना खाने की इच्छा है, अच्छा पहनने की इच्छा है तो अभी व्यक्ति पशु के स्तर पर ही है। जैसै जैसे इन इच्छाओं की पूर्ति होती जाएगी व्यक्ति के अंदर संतुष्टि आ जाएगी। तब व्यक्ति बौद्धिक स्तर पर उठेगा। बौद्धिक संतुष्टि भी आ जाएगी। बहुत कम व्यक्ति में होता है कि वो शारीरिक और बौद्धिक दोनों रूपों में संतुष्ट हो सके। अगर वह संतुष्ट होते हैं तो आध्यात्मिक इच्छा उत्पन्न होगी और ये संसार उसे व्यर्थ लगेगा। यह सुख जो कि दुख मिश्रित है उससे ऊपर कुछ उठने की इच्छा होगी और वह ऐसा सुख खोजेगा जो दुख मिश्रित न हो।

भगवान बुद्ध के अंदर ऐसी इच्छा उत्पन्न हुई, ऐसे जीवन जीने की इच्छा उत्पन्न हुई जिसमें मृत्यु का भय न हो। ऐसी जवानी को भोगने की इच्छा हुई जिसमें बुढ़ापे का भय न हो। इस तरह के जीवन को किस तरह से जिया जा सकता है। अगर यह प्रश्न उत्पन्न हो गया है तो इसका मतलब है कि आप आध्यात्म के रास्ते पर हैं। अन्यथा जो सामान्य मानव होते हैं वो सकाम जीवन जीते हैं। उसके बारे में भगवान कृष्ण कह रहे हैं कि इस संसार में मनुष्य सकाम कर्मों में सिद्धि चाहते हैं। फलस्वरूप वो देवताओं की पूजा करते हैं और नि:संदेह इस संसार में मनुष्यों को सकाम कर्म का शीघ्र फल प्राप्त होता है।

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08 October 2022, 04:03 PM IST

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