ॐलोक आश्रम: समाज का क्या आदर्श होना चाहिए? भाग 1
व्यक्ति कैसा बनेगा यह व्यक्ति के विचार तय करते हैं। परिवार कैसा बनेगा यह परिवार के व्यक्तियों के विचार तय करते हैं। समाज कैसा बनेगा यह सारे परिवारों और उनके सारे व्यक्तियों के विचार मिलकर निर्धारित करते हैं। हमारी चेतना जिस दिशा में जाएगी
व्यक्ति कैसा बनेगा यह व्यक्ति के विचार तय करते हैं। परिवार कैसा बनेगा यह परिवार के व्यक्तियों के विचार तय करते हैं। समाज कैसा बनेगा यह सारे परिवारों और उनके सारे व्यक्तियों के विचार मिलकर निर्धारित करते हैं। हमारी चेतना जिस दिशा में जाएगी हम वैसे ही बन जाएंगे। हमारे जैसे विचार होंगे हमारी चेतना भी उसी दिशा में जाएगी। कई पंथ जो परिवर्तन के साधन के रूप में हिंसा को प्रतिपादित करते हैं। जिनका आराध्य, जिनका उपास्य, जिनका ईश्वर ये कहता है कि जो तुम्हारे जैसे नहीं हैं जो तुम्हारी पूजा पद्धति को नहीं मानते। या तो उन्हें अपनी पूजा पद्धति को मानने को बाध्य कर दो या फिर उनको भगा दो उनको समाप्त कर दो। ऐसे पंथों को जो भी मानते हैं उनके राज्यों की स्थिति अगर आप देखेंगे तो ऐसी है जहां कोई रहना नहीं चाहता।
जहां रहने लायक परिस्थितियां ही नहीं बचीं। जबकि ऐसे सारे लोग धर्म के नियमों का समग्र रूप से पालन कर रहे हैं। ऐसा क्यों होता है। ऐसा इसलिए होता है कि हम जो भी हैं अपने विचारों के तार्किक परिणाम हैं। अपने विचारों की अपनी मान्यताओं की तार्किक परिणाम हैं। हम अगर प्रेम बोएंगे, दूसरे से प्रेम करेंगे। सभी से प्रेम करेंगे तो हमारा समाज, हमारा परिवार प्रेमयुक्त समाज बनेगा। प्रेमयुक्त परिवार बनेगा। अगर हम समाज को दो भागों में बांट दें कि ये अपना है और ये पराया है। अपनों से तो हम प्रेम करेंगे और परायों से हम नफरत करेंगे। तो इस विचार का तार्किक परिणाम यह होगा कि हम किसी से प्रेम नहीं कर पाएंगे। केवल हम नफरत ही करते रहेंगे क्योंकि जिससे हम आज नफरत करते हैं कल वो अपना हो जाएगा।
तब हम उससे प्रेम करने लगेंगे। प्रेम करना और नफरत करना हमारे हाथों में नहीं होता। यह हो जाता है। अगर हम कहें कि अमुक से प्रेम करो तो आप प्रेम करने की एक्टिंग तो कर सकते हो लेकिन प्रेम नहीं कर सकते। जब ईश्वर आपसे कहने लगे कि अमुक से प्रेम करो और अमुक से नफरत करो तब आप एक कन्फ्यूज्ड पर्सनैलिटी हो जाते हो। आप यह समझ नहीं पाते कि किससे प्रेम करना है और किससे नफरत करना है। ऐसी संशय की स्थिति समाज में नफरत को बढ़ावा देता है। जिस तरह प्रकाश और अंधकार दोनों एक साथ नहीं रह सकते, इसी तरह से प्रेम और घृणा दोनों एक साथ नहीं रह सकते। जिस समाज में कोई भी पंथ को मानने वाला व्यक्ति अगर किसी से भी नफरत करता है या उसको नफरत करना सीखाता है तो धीरे-धीरे नफरत बचती है और प्रेम धीरे-धीरे समाज से समाप्त होने लगता है। यह मानव की प्रवृत्ति है कि नकारात्मकता जल्दी उसपर हावी हो जाती है।
अगर आप कहीं जा रहे हो और किसी की हत्या किसी ने कर दी हो या रास्ते में किसी का एक्सीडेंट हो गया हो तो किसने एक्सीडेंट किया इसमें लोगों को जानने की ज्यादा रूचि रहती है, घायल व्यक्ति को अस्पताल उठाकर कौन ले गया इसमें लोगों की रूचि कम रहती है। यह मानव प्रवृत्ति है। आज कहीं युद्ध हो रहा है तो लोग यह सुनना चाहते हैं कि उसमें कितने लोग मारे गए। कहां किसने कितने लोगों को बचाया ये शायद बहुत कम लोग ही सुनना चाहें। धीरे-धीरे वो चीजें विलुप्त हो जाती हैं। हमारा इतिहास युद्धों का इतिहास ज्यादा है और मानवता की सेवा का इतिहास कम है। सारे इतिहास में यही बताया जाता है कि किसने युद्ध किया, उस युद्घ में कौन जीता, किसने किसको हराया और सबकी वीर गाथाओं में यही युद्ध है। मानवता इसी तरह काम करती है। व्यक्ति का मस्तिष्क इसी तरह काम करता है।