ॐलोक आश्रम: ईश्वर के पास पहुंचने का सबसे सरल रास्ता कौन सा है? भाग 2

एक भक्त है। भक्त भगवान की पूजा करता है कि हे भगवान हमें अच्छे नंबरों से पास करा दो। हमारा एडमिशन दिलवा दो। हे प्रभु हमें कुछ धन की प्राप्ति हो जाए। हे प्रभु मेंरी नौकरी जाए। हे प्रभु मेरे बेटे की शादी हो जाए। हे प्रभु मेरी बेटी की शादी हो

Sagar Dwivedi
Sagar Dwivedi

एक भक्त है। भक्त भगवान की पूजा करता है कि हे भगवान हमें अच्छे नंबरों से पास करा दो। हमारा एडमिशन दिलवा दो। हे प्रभु हमें कुछ धन की प्राप्ति हो जाए। हे प्रभु मेंरी नौकरी जाए। हे प्रभु मेरे बेटे की शादी हो जाए। हे प्रभु मेरी बेटी की शादी हो जाए। बहुत सारी ऐसी इच्छाएं हैं जिसको मन में रखकर लोग तरह-तरह के तीर्थों में जाते हैं मंदिरों में जाते हैं और तरह-तरह की मन्नतें मांगते हैं। यह आस्था, यह भक्ति बहुत ही सकाम और छोटी भक्ति है। जब व्यक्ति इस भक्ति से ऊपर उठता है तो वह प्रभु की कृपा चाहता है इससे ज्यादा कुछ और नहीं चाहता है। वह प्रभु की कृपा चाहता है उसे भक्ति में आनंद आने लगता है और वो उस आनंद का उपभोग करता है। इससे भी परे चले जाता है व्यक्ति। कुछ चाहता ही नहीं है। भक्ति में सराबोर हो जाता है उसे अपने आप की भी सुध नहीं होती। यही निष्काम भक्ति है।

इसी तरह से व्यक्ति जब ध्यान लगता है तो उस ध्यान के माध्यम से भगवान को पाना चाहता है। फल प्राप्ति की इच्छा होती है। वह फल प्राप्ति के रूप में भगवदप्राप्ति, भगवद का साक्षात्कार चाहता है। वह भी कामना है। ईश्वर को पाने की इच्छा भी अपने आप में इच्छा है। वह कामना है लेकिन उस कामना का भी परित्याग आवश्यक है। जब व्यक्ति ध्यान लगता रहता है तो धीरे-धीरे समाधि की अवस्था में पहुंचता है और सबकुछ भूल जाता है। वह अपने आप को भी भूल जाता है और उस समय जो वह आनंद का अनुभव करने लगता है वह एक अलग तरह का आनंद होता है और उस अवस्था में पहुंचने के बाद न तो कोई इच्छा रहती है और न कोई विचार रहता है।

वह अवस्था पहुंचती है जब व्यक्ति अपने सारे कर्मों को प्रभु को समर्पित कर चलता रहता है तो धीरे-धीरे प्रभु के प्रति वो अनन्य रूप से समर्पित हो जाता है और उस अवस्था को पहुंचता है जबकि स्वभावत: वह कर्मों से विलुप्त हो जाता है। फल की इच्छा ही नहीं रह जाती क्योंकि वह कोई कर्म करता ही नहीं है। बस कर्म होते जाते हैं। जिस तरह पानी अपने कर्म करके नहीं बहता, उसका स्वभाव ही है बहना वह बहता चला जाता है। जैसे हवा अपने आप बहती जाती है इसके लिए वो कोई प्रयास नहीं करती। इसी तरह व्यक्ति कर्म करता नहीं उससे कर्म होते जाते हैं। चूंकि स्थित है जीवित है इसलिए कर्म हो रहे हैं। उनमें वो कोई प्रयास नहीं कर रहा है। वह कोई इच्छा नहीं लगा रहा उसका कोई प्रयोजन नहीं है कर्म करने का। यह अवस्था आ जाती है यह श्रेष्ठतम अवस्था है।

इस अवस्था की ओर जितनी दूर आप बढ़ते जाओगे आप जीवन में श्रेष्ठता को प्राप्त करते जाओगे। आप देखोगे कि इस संसार में आपको जो निम्नतम बिंदु पर लोग दिखाई दे रहे हैं वह कर्मों से उतने ही ज्यादा लिप्त है। इच्छाओं और वासनाओं में उतने ही ज्यादा जकड़े हुए हैं। जो आपको उच्चतम बिंदु पर दिखाई दे रहे हैं किसी भी क्षेत्र में लंबे समय से। उनको आप देखोगे कि उन्होंने एक तटस्थता की स्थिति प्राप्त कर ली। उन्होंने अपने मस्तिष्क को ऐसी अवस्था में स्थित कर लिया है कि परिणामों से बहुत हद तक वो तटस्थ हो गए हैं। जब आप अपनी चेतना का विकास करते जाते हो तब आप इस अवस्था में पहुंच जाते हो। इस संसार में किसकी कौन सी अवस्था रहेगी ये निर्धारित करता है कि उसके मस्तिष्क की अवस्था क्या है। उसकी चेतना की अवस्था क्या है। आपको जीवन में सफलता प्राप्त करनी है आपको अपने लौकिक जीवन में सफलता प्राप्त करनी है तो आपको अपनी चेतना का स्तर बढ़ाना पड़ेगा।

 आपको एकाग्रता लानी होगी। एकाग्रता वैसे भी आती है। आप अपने ध्यान को एक जगह लाओगे तो वैसे भी आ जाएगी। लेकिन जब आप आसन-प्राणायाम का अभ्यास कर रहे हो तो एकाग्रता आसानी से आ सकती है। इस अवस्था से फिर ध्यान की अवस्था में और ऊपर उठो। उसके बाद फिर आप कर्म फलों का आत्यंतिक त्याग कर दो जो परमात्मा को चाहने वाले हैं परमात्मा की अवस्था में पहुंचने वाले हैं वो फलों का आत्यंतिक त्याग करके निर्विकल्पक समाधि के द्वारा ब्रह्म का साक्षात्कार कर लेते हैं, ईश्वर का साक्षात्कार कर लेते हैं। वह निर्विकल्पक और परम अवस्था आ जाती है। भगवान कृष्ण कहते हैं कि वह परम और श्रेष्ठ अवस्था है। वह ईश्वरत्व की अवस्था है वह भगवान की अवस्था है। ऐसी अवस्था प्रत्येक व्यक्ति का लक्ष्य है। हर व्यक्ति को इसी दिशा में अग्रसर होना चाहिए। इस जीवन में वो जितना प्राप्त कर सके उतना ही उसके लिए श्रेष्ठ है।

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05 November 2022, 04:21 PM IST

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