हर इक दरवाज़ा मुझ पर बंद होता | फ़ज़ल ताबिश

हर इक दरवाज़ा मुझ पर बंद होता अँधेरा जिस्म में नाख़ून होता

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हर इक दरवाज़ा मुझ पर बंद होता

अँधेरा जिस्म में नाख़ून होता


ये सूरज क्यूँ भटकता फिर रहा है

मेरे अंदर उतर जाता तो सोता


हर इक शय ख़ून में डूबी हुई है

कोई इस तरह से पैदा न होता


बस अब इक़रार को ओढ़ो बिछाओ

न होते ख़्वार जो इंकार होता


सलीबों में टंगे भी आदमी है

अगर उन को भी ख़ुद से प्यार होता

calender
29 July 2022, 02:25 PM IST

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