ॐलोक आश्रम: पुनर्जन्म का सिद्धांत क्या है?

एक्चुअल और वर्चुअल वर्ल्ड दोनों को हमें जानना और समझना जरूरी है। दुनिया में दो मत हैं एक मत तो ये मानता है कि वर्ल्ड एक्चुअल और वर्चुअल दोनों है और दूसरा मत जो है वो यह मानता है

Janbhawana Times
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एक्चुअल और वर्चुअल वर्ल्ड दोनों को हमें जानना और समझना जरूरी है। दुनिया में दो मत हैं एक मत तो ये मानता है कि वर्ल्ड एक्चुअल और वर्चुअल दोनों है और दूसरा मत जो है वो यह मानता है कि जो दिखाई देता है वही है उसके अलावा कुछ भी नहीं है। जिसे हम महसूस नहीं कर सकते उसकी हम सत्ता नहीं मान सकते। भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को समझाते हैं आखिर वास्तविकता क्या है। वो कहते हैं जो व्यक्ति यही समझता है कि ये शरीर है और ये समझता है कि ये शरीर दूसरे शरीर को नष्ट कर दे रहा है, आत्मा भी नष्ट हो जा रही है शरीर के साथ और एक आत्मा दूसरे आत्मा को नष्ट कर रही है तो वो दोनों व्यक्ति, जो व्यक्ति ये समझ रहें हैं कि मैं किसी को मार दे रहा हूं और मैं किसी के अगले अस्तित्व को ही खत्म कर दे रहा हूं ऐसा व्यक्ति और ऐसा व्यक्ति जो सोचता है कि मैं मर गया तो मेरा अस्तित्व ही खत्म हो गया तो ऐसे दोनों व्यक्ति इस बात को नहीं जानते हैं कि न तो आत्मा कभी मारा जा सकता है और न कभी मरता है। अर्थात् आप एक सापेक्षिक जगत मे रह रहे हो।

आप लोहे के अलग-अलग रूपों को खत्म कर सकते हो लेकिन लोहे को खत्म नहीं कर सकते। यही एक तरह का पुनर्जन्म है जिस तरह यह शरीर खत्म हो गया एक नया शरीर धारण कर लिया उसी तरह लोहे की कील गलकर लोहे में मिल गई और उन कीलों के गलने से लोहा बन गया और उन लोहे आपने पिलास या पेंचकस बना दिया। या फिर उसको गलाया तो कुछ और बना दिया। अगर कोई व्यक्ति ये सोचता है कि लोहे की कील के गलने से उसका लोहा भी खत्म हो गया तो वो गलत है। लोहा अपने आप में बना रहता है उसका स्वरूप बदलता है। लोहा ही है जो अलग-अलग स्वरूप लेता है। इसी तरह जो परमात्मा है जगत का कारण है वही अलग-अलग स्वरूपों में अवस्थित होता है एक स्वरूप खत्म होता है फिर वापस अपने स्वरूप में आता है फिर दूसरा स्वरूप धारण करता है। यही भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं कि न तो आत्मा किसी को मारता है और न यह मारा जाता है। यह अलग-अलग स्वरूप लेता है। एक शरीर छोड़ा दूसरा शरीर ग्रहण किया।

यही पुनर्जन्म का सिद्धांत है कि व्यक्ति जिस तरह का कर्म करता है उसी तरह के संस्कार आकर्षित होते हैं। स्वामी महावीर संस्कारों को पुद्गल का नाम देते हैं। जिस तरह चुंबक लोहे को आकर्षित करता है उसी तरह से हमारे कर्म कुछ संस्कार को उत्पन्न करते हैं वही है पुद्गल, वो हमारी आत्मा से चिपक जाती है और वो हमारे व्यवहार को हमारे व्यक्तित्व को, हमारे आसपास के माहौल को वो बनाते हैं और उन्हीं के अनुसार हम चलते रहते हैं। उन्हीं के अनुसार हम अगला जन्म लेते हैं। इसलिए कर्मों में सावधानी जरूरी है और ये समझ लेना जरूरी है कि सत्य क्या है और असत्य क्या है। तभी हम सही आचरण कर पाएंगे तभी हम सही निर्णय कर पाएंगे। अर्जुन जो कि दुविधा में खड़ा है वो युद्ध से भागने की सोच रहा है वो सोच रहा है कि इस युद्ध को करने से तो अच्छा है कि मैं भीख मांगकर जी लूं। मैं क्यों किसी को मारूं मैं क्यों किसी से मारा जाऊं। ऐसा युद्ध क्यों करना जिसमें हजारों-लाखों लोग मारे जाएं। इससे अच्छा है कि अन्याय और अपमान सहकर ही जी लूं। तो ये सोच इसलिए है कि वो संसार के सही स्वरूप को नहीं समझ रहा है वह अपने कर्तव्य से भाग रहा है। हमें अपना कर्तव्य करना है और संसार के सही स्वरूप को समझना है तभी हम सही निर्णय ले सकेंगे।

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03 July 2022, 01:47 PM IST

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