मुझे तो इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है | अलीना इतरत

मुझे तो इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है किसी की चाहतों का रंग हर धड़कन पे तारी हो अजब सा कर्ब बेचैनी मुसलसल बे-क़रारी हो निगाहें मुंतज़िर फ़ुर्क़त कसक और आह-ओ-ज़ारी हो

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मुझे तो इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है

किसी की चाहतों का रंग हर धड़कन पे तारी हो

अजब सा कर्ब बेचैनी मुसलसल बे-क़रारी हो

निगाहें मुंतज़िर फ़ुर्क़त कसक और आह-ओ-ज़ारी हो

मुझे तो इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है

कभी पहलू में मिलता है कभी वो दूर जाता है

किसी कि जिस्म ओ जाँ को इश्क़ हर लम्हा जलाता है

तसव्वुर कैसे कैसे दिल-नशीं मंज़र दिखाता है

मुझे ते इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है 

अभी तो फ़ुर्क़त-ए-जानाँ के क़िस्से ख़ूब लिखने हैं

दबी चाहत के नग़्मे और तराने ख़ूब लिखने हैं

रिफ़ाक़त में जुदाई के फ़साने ख़ूब लिखने हैं

मुझे ते इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है

‘अलीना’ इंतिज़ार-ए-इश्क़ ग़ज़लों को सजा देगा

विसाल-ए-यार तो बस चंद लम्हों को मज़ा देगा

मिलन हो फिर जुदाई ऐसा पल हर पल सज़ा देगा

मुझे तो इंतिज़ार-ए-इश्क़ में ही लुत्फ़ आता है

calender
11 August 2022, 04:45 PM IST

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