ये गर्द-बाद-ए-तमन्ना में घूमते | अमजद इस्लाम

ये गर्द-बाद-ए-तमन्ना में घूमते हुए दिन कहाँ पे जा के रुकेंगे ये भागते हुए दिन ग़ुरूब होते गए रात के अँधेरों में नवेद-ए-अमन के सूरज को ढूँडते हुए दिन

Janbhawana Times
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ये गर्द-बाद-ए-तमन्ना में घूमते हुए दिन

कहाँ पे जा के रुकेंगे ये भागते हुए दिन


ग़ुरूब होते गए रात के अँधेरों में

नवेद-ए-अमन के सूरज को ढूँडते हुए दिन


न जाने कौन ख़ला के ये इस्तिआरे हैं

तुम्हारे हिज्र की गलियों में गूँजते हुए दिन


न आप चलते न देते हैं रास्ता हम को

थकी थकी सी ये शामें ये ऊँघते हुए दिन


फिर आज कैसे कटेगी पहाड़ जैसी रात

गुज़र गया है यही बात सोचते दिन 


तमाम उम्र मेरे साथ साथ चलते रहे

तुम्हीं को ढूँडते तुम को पुकारते हुए दिन


हर एक रात जो तामीर फिर से होती है

कटेगा फिर वही दीवार चाटते हुए दिन


मेरे क़रीब से गुज़रे हैं बारहा 'अमजद'

किसी के वस्ल के वादे को देखते हुए दिन

calender
06 August 2022, 06:23 PM IST

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