ॐलोक आश्रम: हम श्राद्ध क्यों मनाते हैं? भाग-1

सस्टेनेबल डेवलपमेंट पर बहुत सारे सेमिनार हो रहे हैं। पूर्वजों ने इस बात को बड़ा पहले समझ लिया कि केवल मनुष्य का जीवित रहना जरूरी नहीं है।

Saurabh Dwivedi
Saurabh Dwivedi

सस्टेनेबल डेवलपमेंट पर बहुत सारे सेमिनार हो रहे हैं। पूर्वजों ने इस बात को बड़ा पहले समझ लिया कि केवल मनुष्य का जीवित रहना जरूरी नहीं है। एक चींटी का भी जीवित रहना उतना ही जरूरी है और उसको इस सिस्टम मे इस तरह से गूंथ दिया कि एक तो हम अपने पूर्वजों के प्रति उनके ऋण को समझें और उसमें भोजन का एक छोटा सा हिस्सा अपने पूर्वजों के नाम पर बाहर रख देते हैं पशु-पक्षियों के लिए तो उससे बहुत सारे जीवों का पेट भर सकता है जो कि प्रकृति ने अभी प्रोड्यूस नहीं किया। प्रकृति का यह कार्य भी सुचारू रूप से चलता है और जो मानव के विकास के लिए आवश्यक है कि उनके पूर्वजों के प्रति समुचित आदर दें, सत्कार दें ताकि हमारे माता-पिता जीवन में इतना सारा कष्ट इसीलिए उठाते हैं कि हम उनके बच्चे अच्छे से रह पाएं। मां-बाप अपने जीवन में इतने दुख इसलिए सह लेते हैं कि उनके बच्चे को सुख मिल जाए। उनके बच्चे अच्छे से पढ़ लिख सके उसके लिए मां-बाप अपने खाने तक में कटौती कर देते हैं। अपनी तबीयत खराब हो तो शायद वो डॉक्टर के पास भी न जाएं लेकिन अगर बच्चे की तबीयत खराब हो तो मां-बाप रात को ही उठकर उसे डॉक्टर के पास ले जाते हैं तो ऐसे बच्चों के सामने समाज का उत्तरदायित्व है कि वो इस बात को रखे कि वो अपने पितरों के प्रति एक श्रद्धा भाव रखे एक आस्था भाव रखे। इसी आस्था भाव का प्रतीक ये पूरा श्राद्ध है और यह पर्व हम इसीलिए मनाते हैं।

यह मान्यता है कि जो पितर होते हैं वो आते हैं। इसमें दो प्रथाएं हैं। एक तो ऐसे पितर जिनका हमने गया जाकर पूरी तरह से पिंडदान नहीं किया है। मतलब कि हमारे पास एक पद्धति है कि हमने उनका पूरी तरह से तर्पण कर दिया है और उनका धन्यवाद ज्ञापन कर दिया है गया जाकर और जिनका हमने गया जाकर तर्पण नहीं किया, उनका धन्यवाद ज्ञापन नहीं किया है उन पितरों को हम उनके लिए श्राद्ध अर्पित करते हैं हम उनके लिए श्रद्धा का समर्पण करते हैं। पितर आते हैं या नहीं आते हैं। अगर हम दार्शिक दृष्टिकोण से देखें तो दार्शनिक दृष्टिकोण ये कहता है कि व्यक्ति अपने कर्मों के अधीन है और जिस व्यक्ति ने जैसा कर्म किया है उसके हिसाब से उसको उस तरह के फल मिलते हैं उस तरह का जन्म मिलता है। इसे इस तरह से समझिए कि किसी व्यक्ति की मौत हो गई उसका देहांत हो गया और उसने अगला जन्म ले लिया। ऐसे समाज में उसने जन्म लिया है जहां लोग उदार हैं। जहां लोग दयालु हैं।

जहां लोग किसी भी प्राणी पर दया करते हैं तो ऐसे समाज मे वह पितृ किसी भी रूप में अगर है तो वह भी सुखी रहेगा वह भी समृद्ध रहेगा, वह भी संपन्न होगा। वास्तविक दृष्टि से देखा जाए तो ये आवश्यक नहीं है कि जो हम श्राद्ध कर रहे हैं किसी को कुछ दे रहे हैं वो हमारे पितर को ही मिलेगा या किसी को मिलेगा। ऐसा कोई तात्विक या दार्शनिक नियम नहीं है लेकिन जब समाज की बात होती है। धर्म और समाज सनातन परंपरा में अलग-अलग नहीं हैं। जब हम समाज के लिए कुछ करते हैं तो वापस समाज से लौटकर हमें मिलता है। जब हम प्रकृति के लिए करते हैं तो वापस लौटकर हमें मिलता है। अगर आज हम अपनी गाड़ी तेजी से भगा रहे हैं प्रदूषण फैला रहे हैं तो वापस वो हमें ही मिल रहा है। हमें प्रदूषित वातावरण मिल रहा है। नदियां प्रदूषित हो गई हैं। बाढ़ आ रही हैं। बहुत ऐसी चीजें हो रही हैं। हमें वो वापस मिल रहा है। इसी तरह से जब हम इन चीजों को शुद्ध रखते हैं, जब सामाजिक वातावरण शुद्ध होता है, लोग प्यार से रहते हैं, समाज में खुशियां होती हैं। वो भी हमें वापस मिलता है। तो कहने का ढंग है कि हमें अपने पूर्वजों के प्रति समर्पित होना चाहिए और जो कुछ भी हम समर्पित कर रहे है इस प्रकृति को एक तरह से वो हमारे पूर्वजों को ही मिल रहा है। ये कहने का एक तरीका है।

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20 December 2022, 04:14 PM IST

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