पीरियड्स पर चुप्पी अब भी कायम, पुरुषों की सोच में नहीं आया बदलाव!
साल 2025 में भी हर तीन में से दो महिलाएं पीरियड्स के दर्द और तकलीफ को छुपाने को मजबूर हैं, ताकि उन्हें ‘कमजोर’ ना समझा जाए. 'महीना' ब्रांड के सर्वे में सामने आया कि ये चुप्पी सिर्फ सामाजिक नहीं, बल्कि व्यक्तिगत स्तर पर भी गहराई से फैली हुई है.

साल 2025 में भी जब हम सोचते हैं कि समाज बदल रहा है, पीरियड्स को लेकर जागरूकता बढ़ रही है और पुरुष इस विषय पर संवेदनशील हो रहे हैं, तब एक नया सर्वे हमें इस भ्रम से बाहर निकाल देता है. पीरियड केयर ब्रांड 'महीना' द्वारा किए गए इस सर्वे में 1032 मासिकधर्मियों की राय सामने आई, जिसमें चौंकाने वाला खुलासा हुआ. हर तीन में से दो महिलाएं कहती हैं कि पुरुषों को ये उम्मीद होती है कि वे अपने शारीरिक और मानसिक कष्टों को छिपाकर ‘सामान्य’ दिखें, चाहे वो घर हो या दफ्तर.
ये रिपोर्ट ना केवल पीड़ा को बयां करती है, बल्कि ये भी बताती है कि मासिक धर्म से जुड़ी चुप्पी सिर्फ संस्थागत नहीं, व्यक्तिगत भी है. ये समस्या केवल ग्रामीण या छोटे शहरों तक सीमित नहीं है, बल्कि बड़े और प्रगतिशील कहे जाने वाले समाजों में भी महिलाएं दर्द और असहजता को छुपाकर जीवन जी रही हैं.
घर की चारदीवारी में भी नहीं मिलती राहत
ये सर्वे स्पष्ट करता है कि मासिक धर्म से जुड़ी परेशानियों को स्वीकारने की आज भी इजाजत नहीं है. महिलाएं आज भी अपने ही घरों में दर्द से कराहने के बजाय मुस्कराती रहती हैं, सिर्फ इसलिए कि उन्हें 'कमजोर' ना समझा जाए.
ना पीरियड लीव, ना सामाजिक सहारा
2024 में जब सुप्रीम कोर्ट में सभी क्षेत्रों में मासिक धर्म अवकाश को अनिवार्य करने की याचिका दायर की गई, तो अदालत ने ये कहकर याचिका खारिज कर दी कि ये नीति निर्धारण का विषय है, न्यायपालिका का नहीं. इसके साथ ही, चिंता जताई कि ऐसा कोई नियम लागू करने से कंपनियों में महिलाओं की भर्ती को लेकर हिचकिचाहट बढ़ सकती है. ये कोई सहानुभूति की मांग नहीं है, ये बस दर्द को स्वीकार करने और बिना शर्म के उसे व्यक्त करने की आजादी की मांग है.
62% महिलाएं ऑफिस में छुपाती हैं दर्द
सर्वे के अनुसार, 62% मासिकधर्मी महिलाएं अपने लक्षणों को सार्वजनिक स्थलों और कार्यस्थलों पर छुपाती हैं ताकि ‘सामान्य’ दिखें. ये सशक्तिकरण नहीं, बल्कि 'चुपचाप जिंदा रहने' की कोशिश है. इस रिपोर्ट में ये भी बताया गया कि मासिक धर्म से जुड़ी चुप्पी कोई नया व्यवहार नहीं, बल्कि ये एक विरासत है. 73% महिलाओं ने बताया कि उन्हें पहली बार पीरियड्स के बारे में अपनी मां से जानकारी मिली, लेकिन उन्हें ये नहीं बताया गया कि ये अनुभव असल में कैसा होता है.
76% महिलाओं ने बताया कि 8 से 14 साल की उम्र के बीच उन्होंने इस शारीरिक और भावनात्मक बोझ को महसूस करना शुरू कर दिया था, जब उन्हें खुद भी पूरी समझ नहीं थी कि उनके साथ क्या हो रहा है.
मासिक धर्म के अनुसार बदलाव
सफर की योजना हो, ड्रेस का चुनाव या मूड- महिलाओं की पूरी दिनचर्या मासिक धर्म के अनुसार बदल जाती है. सिर्फ 3% महिलाओं ने कहा कि उन्हें अपनी दिनचर्या में कोई बदलाव नहीं करना पड़ता. बाकी सब अंदरूनी तूफान के साथ भी सामान्य दिखने की जद्दोजहद में लगी रहती हैं.


