ॐलोक आश्रम: हमारे जीवन के लक्ष्य क्या हैं? भाग-1
हम उस विश्वव्यापी संस्कृति की विरासत हैं जिनके ऋषियों ने महान तप किया है। घोर तपस्या की है। उन्होने अपने तप को वेदों और उपनिषदों के मोतियों में संजोया है।
हम उस विश्वव्यापी संस्कृति की विरासत हैं जिनके ऋषियों ने महान तप किया है। घोर तपस्या की है। उन्होने अपने तप को वेदों और उपनिषदों के मोतियों में संजोया है। कितनी गहन दृष्टि थी हमारे ऋषियों की, कितनी दूर दृष्टि से हमारी ऋषियों की जो आज से हजार वर्ष पहले उन्होंने प्रकृति के मूल्य को समझा। प्रकृति के महत्व को समझा। सस्टेनबल डेवलपमेंट को समझा। मनुष्य को किस तरह का जीवन जीना है। कैसा जीवन जीना है। हमारे जीवन के लक्ष्य क्या हों। इस महत्वपूर्ण विंदु पर विचार किया। ऋषि कहते है कि जो कुछ भी है इस संसार में वो सब ईश्वर में है ईश्वर से बाहर कुछ भी नहीं है। ईशवर से बाहर कोई सत्ता नहीं है। अगर ईश्वर पूर्ण है तो ईश्वर से बाहर कुछ हो भी नहीं सकता।
अगर ईश्वर से बाहर कुछ हो जाए तो वो पूर्ण नहीं रहेगा उसके अंदर अपूर्णता आ जाएगी। वह सर्वव्यापी नहीं होगा अगर ईश्वर सर्वव्यापी है तो इसका मतलब है कि ईश्वर से बाहर कुछ भी नहीं है। शैतान कहीं है ही नहीं अगर शैतान कहीं है इसका मतलब कि ईश्वर सीमित है। शैतान ने ईश्वर को सीमित कर दिया है। शैतान ने ईश्वर की शक्ति को सीमित कर दिया है। ईशावस्या उपनिषद कहती है कि सबकुछ ईश्वर में ही है। ये हमारी बुद्धि है कि हम उसमें क्या देखते हैं। शैतान हमारे दिमाग में है हमारी सोच में है। ईश्वर में कुछ नहीं है, ईश्वर के अलावा है ही नहीं कुछ। जो भी है चाहे वो चेतन है या अचेतन जो कुछ भी है वो ईश्वर है। हमें जीवन को जीना है। हमें जीवन को उपभोग करना है। इस प्रकृति को उपभोग करना है, किस तरह उपभोग करना है त्यागपूर्वक उपभोग करना है।
हम जीवन को उपभोग करें जितने भी प्रकृति में संसाधन हैं हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए पर्याप्त हैं लेकिन हमारी लालच की पूर्ति के लिए पर्याप्त नहीं हैं। अगर हम अंधाधुंध उपभोग करते जाएंगे तो एक समय ऐसा आएगा कि यही प्रकृति के संसाधन हमारे लिए कम पड़ जाएंगे। प्रकृति में हमारे लिए कुछ नहीं बचेगा। प्रकृति के संसाधनों का सही रूप में सही चीज के लिए सही समय पर उपयोग करना है। इसलिए हमें त्यागपूर्वक उपभोग करना है। त्याग करना है। किसका त्याग करना है। फल की इच्छा का त्याग करना है।
हमें चीजों का उपभोग करना है लेकिन अगर हम फल की इच्छा रखेंगे और फल की इच्छा रखकर चीजों का संग्रह चालू करने लगेंगे तो हम प्रकृति का दोहन करने लगेंगे और जब प्रकृति का दोहन होगा हमारा लालच बढ़ेगा तो क्या सही और क्या गलत है इन चीजों से हम परे चले जाएंगे और सही और गलत का परवाह न करते हुए हम अंधाधुंध दोहन करने लगेंगे। प्रकृति का अंधाधुंध दोहन शुरू हो जाएगा। अंधाधुंध दोहन का परिणाम होगा कि प्रकृति में एक सामंजस्य बिगड़ जाएगा और जो हमारे लिए श्रेयस्कर है वो न हो सकेगा। इसलिए लालच मत करो, गिद्ध की तरह मत बनो, जितना जरूरी है वही लो प्रकृति से। अपनी जरूरत के मुताबिक हम प्रकृति से उतना ही लें। ये धन किसी का नहीं है क्योंकि सबकुछ प्रभु है।