ॐलोक आश्रम: मोक्ष की अवधारणा क्या है? भाग-1

मोक्ष, मुक्ति, निर्वाण, अर्हत ये ऐसे शब्द हैं जो सनातन परंपरा में ही मिलते हैं। जीवन का सर्वोत्कृष्ट सुख सर्वोत्कृष्ट आनंद जिस अवस्था में मिलता है, जिस अवस्था में व्यक्ति पहुंच जाता है। उस अवस्था में व्यक्ति का पहुंचना उसकी संकल्पना, उसको सच करके दिखाना।

Saurabh Dwivedi
Saurabh Dwivedi

ॐलोक आश्रम: मोक्ष, मुक्ति, निर्वाण, अर्हत ये ऐसे शब्द हैं जो सनातन परंपरा में ही मिलते हैं। जीवन का सर्वोत्कृष्ट सुख सर्वोत्कृष्ट आनंद जिस अवस्था में मिलता है, जिस अवस्था में व्यक्ति पहुंच जाता है। उस अवस्था में व्यक्ति का पहुंचना उसकी संकल्पना, उसको सच करके दिखाना। ये सनातन सभ्यता के गुण हैं इसके लक्षण हैं और मोक्ष सनातन सभ्यता का सर्वोत्कृष्ट मूल्य है। जब से सृष्टि का उदय हुआ है मानव अनेकों रूपों में रहते आया है। इस पृथ्वी के अलग-अलग कोने में अलग अलग सभ्यताएं विकसित हुई हैं। हर सभ्यता में हर समाज में व्यक्ति का संघर्ष रहा है। व्यक्ति का संघर्ष प्रकृति के साथ रहा है।

मनुष्यों के विरुद्ध रहा है और इस सारे संघर्ष में व्यक्ति ने जिसे लक्ष्य बनाया अपने जीवन का आदर्श बनाया वह सुख प्राप्ति था। हर कर्म मनुष्य ने अपनी सुख प्राप्ति की इच्छा से किए हैं। उसका अल्टीमेट मकसद होता था, परम उद्देश्य होता था वह सुख को प्राप्त कर सके। कठिन से कठिन परिस्थितियों में जब चिंतन का उदय हुआ तो सभ्यताओं ने एक संकल्पना की, एक ऐसे जगह की एक ऐसे क्षेत्र की जहां दुखों का नामो निशान न हो। जहां व्यक्ति सुखी रहे जहां हर उत्तम चीजें व्यक्ति को मिल जाएं। कहीं उसे जन्नत कहा गया कहीं उसे स्वर्ग कहा गया। अलग-अलग जगहों पर अलग-अलग उसको नाम दिए गए।

स्वर्ग, जन्नत ये संकल्पनाओं में ऐसी जगह रहीं जहां जैसा मानव था वहां उस तरह उसने वैसे विचार किए। जो दुखों से रहित सुखों की संकल्पना मनुष्य ने की थी कि दुनिया की हर अच्छी चीजें मिल जाएं। जहां हमेशा बसंत का मौसम रहे। जहां दूध और शहद की नदियां बहती हों। जहां सुंदर स्त्रियां परिचर्या करती हों। जहां उत्तम मदिरा मिलती हो। ऐसी-ऐसी संकल्पनाएं जो जिस व्यक्ति के मन में आईं उसने स्वर्ण में वह जोड़ दी। व्यक्ति ने इस जीवन के कष्टों को किसी न किसी तरह से सहता हुआ चला गया कि शायद इन कष्टों से पार जाने के बाद उसे एक सुख की अवस्था मिलेगी। जो स्वर्ग मिलेगा जो मरने के बाद उसे इस स्वर्ग की प्राप्ति होगी। वह स्वर्गीय सुखों का आनंद लेगा।

जिन आनंद को, जिन अवस्थाओं को, जिस आनंद को इस संसार में नहीं ले सकता वो मरने के बाद उसे मिलेंगी। यह एक आम धारणा थी। यह एक आम सोच थी। सनातन परंपरा में सनातन धर्म में भी ये सोच रही। इस सोच के साथ मानव ने काम किया। मानवता ने इसी सोच के साथ काम किया। लेकिन जैसे-जैसे व्यक्ति ने वैज्ञानिक प्रगति की। विज्ञान ने उन स्वर्गीय कल्पनाओं को इस धरती पर ही साकार कर दिया। जो व्यक्ति स्वर्ग में जिन सुखों की कामना करता था वो सुख इस पृथ्वी पर ही संकल्पित कर दिए गए। सारी दुनिया में तो वे अभी हुए हैं लेकिन भारत में ऐसी परिस्थितियां पहले आ चुकी हैं। महाभारत कालीन समाज में ऐसी परिस्थितियां आ चुकीं जब समाज ने विकास की पराकाष्ठा को प्राप्त किया।

मोक्ष की अवधारणा तभी उदित होती है जब व्यक्ति सुखों की पराकाष्ठा पर पहुंच जाए। जब व्यक्ति को यह भान हो जाए कि सुख और दुख एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। दुख से रहित सुख जैसी कोई चीज नहीं है। सुखों का ना होना भी दुख हो जाता है। ऐसी परिस्थिति आ जाती है कि सुखों की न रहने की परिकल्पना को सोचकर जो डर हो जाता है उससे भी दुख हो जाता है। इस सांसारिक जीवन को जीते हुए, सुखों की प्राप्ति में लगे हुए, सुखों के पीछे लगे हुए व्यक्ति के जीवन में दुख रहित सुख की संकल्पना संभव नहीं है। हमारे ऋषि-मुनियों ने इसपर विचार किया और उन्होंने अपने तत्व दृष्टि से इस बात को देखा और समझा। जहां आज भी विज्ञान नहीं जा पाया है, भविष्य में चला जाएगा पहुंच जाएगा।

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20 November 2022, 01:46 PM IST

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