ॐलोक आश्रम: आसक्ति क्यों उत्पन्न होती है?
भगवदगीता में भगवान कृष्ण ने हमें जीवन जीने का तरीका बताया। जीवन को जीने के तरीके को बताते हुए भगवान कहते हैं कि हमें जीवन को इस तरह से जीना चाहिए कि नए कर्मों में आसक्ति न हो और जो पुराने कर्म हमने अर्जित किए हुए हैं वो धीरे-धीरे विगलित हो जाएं।
भगवदगीता में भगवान कृष्ण ने हमें जीवन जीने का तरीका बताया। जीवन को जीने के तरीके को बताते हुए भगवान कहते हैं कि हमें जीवन को इस तरह से जीना चाहिए कि नए कर्मों में आसक्ति न हो और जो पुराने कर्म हमने अर्जित किए हुए हैं वो धीरे-धीरे विगलित हो जाएं। तभी हम परम आनंद की अवस्था में पहुंचेंगे, तभी हम जीवन के लक्ष्य की ओर आगे बढ़ेंगे। भगवान कृष्ण कहते हैं जिसका संग चला गया है, जो मुक्त है। मुक्त कौन है जिसका संग चला गया है। संग का मतलब है आसक्ति। आसक्ति क्यों उत्पन्न होती है। पुरुष विषयों का ध्यान करता है जिससे उसकी आसक्ति उत्पन्न होती है। आपको मजा आता है ध्यान करने में। सोचने में। आप अपनी वासनाओं को जितना फैलाते हो, जितना बाहर फेंकते हो उतना ही वो आपको मजा देती हुई दिखाई देती है। सुख देते हुए दिखाई देती है। जब आप किसी सुंदर लड़की के बारे सोचना चालू करते हो तो आपको अच्छा लगता है, आनंद आता है। मजा आना चालू हो जाता है। आप आनंद पाने के लिए धीरे-धीरे इसको बढ़ाते जाते हो। यही आसक्ति का कारण है। जिसके पास कोई संग नहीं है। संसार की किसी बाहर की वस्तु में उसको कहीं भी आनंद नहीं मिल रहा या आनंद लेने की जरूरत नहीं है। वही मुक्त है।
अब बाहर की वस्तु में आनंद क्यों नहीं ले रहा व्यक्ति। क्योंकि बाहर की वस्तुओं में जहां भी आप आनंद ढ़ूंढ़ने की कोशिश करते हो, एक तो वह क्षणिक है दूसरा वो दुखमय है। आपको अगर किसी लड़की के बारे में सोचकर मजा आ रहा है तो आप उसके पीछे जाओगे वो आपको मिल जाएगी। कुछ समय बाद उसी लड़की में आपको आनंद प्राप्त नहीं होगा। फिर आप कहीं और जाओगे। फिर वही आनंद आपके दुख का कारण बन जाएगा। विषयों से चिपकना आसक्ति का कारण है। उसके न प्राप्त होने पर भी दुख होता है और प्राप्त होकर खोने का भी डर रहता है। प्राप्त हो जाए तो कुछ समय बाद वह चीज जो है वह आपके लिए उपयुक्त नहीं रहती। आपका मन भर जाता है और आप किसी दूसरे के पीछे लग जाते हो। जिस तरह से हिरण जंगल में दौड़ते रहते हैं, जिस तरह घोड़े दौडते रहते हैं उस तरह हमारी इन्द्रियां विषयों के पीछे दौड़ती रहती हैं। जो संत हैं जो साधु हैं जो जीवन में प्रभु से मिलन चाहते हैं। जो अपने जीवन को आध्यात्मिक रूप से जीना चाहते हैं। जो अपना आत्मोत्कर्ष चाहते हैं, जो अपनी आत्मा का उन्नयन चाहते हैं। कर्म के बंधनों से छूटकर परम मुक्त अवस्था में जीना चाहते हैं।
भगवान उनके लिए कहते हैं कि मुक्त तभी होगे जब आपका संग समाप्त हो गया हो और आपका चित्त ज्ञान में अवस्थित हो। परमात्मा के ज्ञान में अवस्थित हो गया हो चित्त। अगर आपका चित्त है वह इन्द्रियों के पीछे भाग रहा है। आपका मन अच्छी चीजें देखना चाहता है। आपका मन अच्छी चीज खाने को है। आपका मन अच्छे कपड़े पहनने को है। अच्छा स्पर्श चाहता है। अच्छी खुशबू चाहता है। इन्द्रियों के साथ जुड़ा हुआ है। जो चीजें आपको सुख देती हैं वह चाहता है तो आप मोक्ष के अधिकारी नहीं हो मुक्ति के अधिकारी नहीं हो। जीवन में आपके भोग बचा हुआ है। आप भोग से तृप्त नहीं हो। अच्छा है कि आप भोग कर लो। अगर ऐसा व्यक्ति आध्यात्मिक जीवन में आता है तो वह ढोंगी है। भगवान कहते हैं जो इन्द्रियों को जबरदस्ती कंट्रोल में करके मन से सोचता रहता है वह धूर्त है। उसे चोर कहा गया है। जिस व्यक्ति की अपनी इच्छाएं पूरी नहीं हुई हों। वासनाएं पूरी नहीं हुईं हों। वह किसी तरह संत तो बन जाए, संत का चोला पहन ले और मन ही मन विषयों को सोचता रहे तो ऐसा व्यक्ति मिथ्याचारी बन जाता है। ऐसा व्यक्ति मोक्ष का अधिकारी नहीं है। उसे इस रास्ते में आना नहीं चाहिए। उसे वस्तुत: अभी जीवन को जीना चाहिए, भोग करना चाहिए।
जब भोग से मन तृप्त हो जाये और वह इस बात का अनुभव कर ले कि दुख और सुख एक ही सिक्के को पहलू हैं। मैं सुखों के पीछे कितना भी भाग लूं मुझे दुख रहित सुख नहीं मिल सकता। तभी वह मोक्ष के लिए आ सकता है तभी वह संग छोड़ सकता है विषयों में। तब उसका चित्त विषयों से हटकर ज्ञान में अवस्थित हो जाएगा। जब आपका चित्त ज्ञान में अवस्थित हो गया तब वह जो भी कर्म करेगा वह काम अपने लिए नहीं करेगा। वो यज्ञ के लिए करेगा। जिस तरह से यज्ञ में उत्तम वस्तुओं की आहुतियां दी जाती हैं उसी तरह वो उत्तम कार्य समाज के लिए करेगा। लोक कल्याण के लिए करेगा। लोगों की भलाई के लिए काम करेगा। उसका स्वभाव ही ऐसा बन जाएगा कि उसके हर कार्य से लोगों की भलाई होगी। किसी का भी नुकसान नहीं होगा। ऐसा व्यक्ति जो यज्ञ के लिए कार्य करता है उसके सारे कर्म धीरे-धीरे करके समाप्त हो जाते हैं। उसके कर्म नष्ट हो जाते हैं और वह विशुद्ध चैतन्य स्वरूप हो जाता है और परमानंद प्राप्ति का अधिकारी बन जाता है।