'बेवफा कबाब और पकते जज्बात... जब संगीत से सजती थी नवाब की थाली, पढ़ें वाजिद अली शाह की रसोई किस्से
जब रसोई से राग-रागिनियां गूंजें और व्यंजन सुरों पर पकें, तो समझिए आप अवध के नवाब वाजिद अली शाह की शाही रसोई में हैं. यहां खाना सिर्फ स्वाद नहीं, एक कला, एक इबादत और एक संगीत था. रसोई से उठती खुशबू और सुरों की संगत, मिलकर ऐसा नवाबी जायका तैयार करती थी, जो आत्मा तक को सुकून दे.

भारत के नवाबी दौर की विरासत केवल इमारतों, शायरी या तहजीब में ही नहीं, बल्कि उस दौर की रसोई और खानपान में भी झलकती है. अवध के नवाब वाजिद अली शाह की शाही रसोई का जिक्र आते ही ज़हन में आते हैं वो किस्से, जहां खाने की हर थाली एक कविता थी, हर जायका एक सुर और हर पकवान एक इबादत. यहां खाना केवल भूख मिटाने का ज़रिया नहीं था, बल्कि रागों, रसों और रिवायतों का संगम था.
नवाब वाजिद अली शाह का खानपान के प्रति प्रेम इतना गहरा था कि उनकी रसोई संगीत की लहरों पर थिरकती थी. उनका मानना था – "भूख एक सुर है और खाना उसका राग." यही कारण था कि अवध की यह शाही रसोई सिर्फ स्वाद का नहीं, एक संपूर्ण कलात्मक अनुभव का केंद्र थी.
संगीत से सजी नवाबी रसोई
वाजिद अली शाह की रसोई में हर पकवान एक खास राग पर आधारित होता था. सुबह राग भैरव, दोपहर में मेघ मल्हार और रात में राग दरबारी शंकरा के साथ पकते थे पकवान. बावर्चियों को संगीत की प्राथमिक शिक्षा दी जाती थी ताकि खाना पकाते समय उनकी हथेलियों की चाल और दिल की लय एक हो. बावर्चियों को सिखाया गया था कि खाना घड़ी देखकर नहीं, ‘आवाज सुनकर’ पकाया जाए. इसी संगीतमय माहौल में बना था ‘कोफ्ता-ए-नरगिसी’, जो राग यमन में ठुमरी के साथ पकता था.
'बेवफा कबाब' की अनोखी कहानी
जब नवाब ने अपने खास बावर्ची तलत अली से कहा – “ऐसा कबाब बनाओ जो जीभ पर आते ही गायब हो जाए, जैसे किसी महबूब की बेवफ़ाई…” तब जन्म हुआ ‘बेवफा कबाब’ या ‘गालौटी कबाब’ का. पपीते के रस, दही और 120 से अधिक मसालों में मैरीनेट कर महीनों की मेहनत के बाद यह कबाब तैयार किया गया, जो आज लखनऊ की पहचान है.
बिना प्याज-लहसुन की बिरयानी
जब नवाब को साबित करना था कि प्याज-लहसुन के बिना भी बिरयानी में जान हो सकती है, तब उनके सबसे भरोसेमंद बावर्ची महफूज अली ने ऐसी बिरयानी बनाई जिसने नवाब को कहने पर मजबूर कर दिया, ये तो इबादत है… खाने के बहाने खुदा का जिक्र है. इस बिरयानी में जायफल, जावित्री, गुलाब जल, केवड़ा और दही का बेमिसाल संगम था, जिसे आज भी कई मुस्लिम और वैष्णव अवसरों पर बनाया जाता है.
बिना आग की दम बिरयानी
एक बार नवाब ने हंसी में कहा – “ऐसी बिरयानी बनाओ जो खुद-ब-खुद दम खा ले.” बावर्ची ने तंदूर की राख और गर्म पत्थरों का उपयोग किया, बिना सीधे चूल्हे के बिरयानी पकाई गई. इसे नाम मिला – ‘दम-ए-लखनवी’.
बिना चीनी की मीठी सेवइयां
जब नवाब ने कहा – “बिना चीनी की सेवइयां बनाओ जो फिर भी मीठी लगें”, तब बनी ‘किमामी सेवइयां ’. खसखस, मावा, सूखे मेवे और गुलाब जल के संगम से बनी यह सेवइयां ईद और मुहर्रम पर आज भी बनाई जाती है.
नवाबी खाना या इबादत?
वाजिद अली शाह की रसोई में खाना एक आध्यात्मिक साधना थी. यहां हर व्यंजन में सलीका, साज़ और सृजन का संगम होता था. ये किस्से केवल खाने की रेसिपी नहीं हैं, बल्कि उस दौर की संवेदनाओं और संस्कृति की मिठास हैं, जो आज भी हमें विरासत में मिली है.


