भारत-पाक के बीच एक और मुल्क चाहता था इपी का फकीर… नाम था मिर्जा अली खान!
Mirza Ali Khan: ब्रिटिश हुकूमत से लेकर पाकिस्तान तक से टकराने वाला एक ऐसा जनजातीय योद्धा, जिसे इतिहास ने लगभग भुला दिया. मिर्जा अली खान, जिन्हें 'इपी का फकीर' कहा जाता था, ने न केवल अंग्रेजों के खिलाफ बंदूक उठाई, बल्कि भारत के बंटवारे के समय पाकिस्तान के भी खिलाफ आवाज बुलंद की.

Mirza Ali Khan: भारत के बंटवारे के दौर में जहां एक ओर इस्लाम के नाम पर अलग मुल्क की मांग उठ रही थी, वहीं कुछ ऐसे भी नेता थे, जो इस विचारधारा के सख्त खिलाफ थे. भारत की सीमांत धरती से भी ऐसी ही एक बुलंद आवाज उठी मिर्जा अली खान की, जिन्हें 'इपी का फकीर' कहा जाता था. उनकी आवाज न केवल ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ थी, बल्कि उन्होंने पाकिस्तान के गठन का भी खुला विरोध किया.
जहां अब्दुल गफ्फार खान को सीमांत गांधी कहा गया, वहीं मिर्जा अली खान एक ऐसे बागी थे, जिनकी जनजातीय ताकत ब्रिटिश सत्ता को लगातार चुनौती देती रही. करीब 10 हजार सशस्त्र लड़ाकों की फौज के साथ उन्होंने उत्तर-पश्चिम सीमांत प्रांत की पहाड़ियों में सालों तक गुरिल्ला युद्ध छेड़ा और ब्रिटिश सेना की नाक में दम कर दिया.
कौन थे मिर्जा अली खान?
मिर्जा अली खान वजीर एक प्रभावशाली जनजातीय नेता थे, जिनकी उपस्थिति खैबर पख्तूनख्वा के उत्तरी वजीरिस्तान में स्थित गांव इपी से लेकर अफगानिस्तान की पहाड़ियों तक फैली हुई थी. उन्हें 'हाजी मिर्जा अली खान' भी कहा जाता था क्योंकि वे हज कर चुके थे. ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ उनका विद्रोह अचानक नहीं था, बल्कि यह उस मानसिकता के खिलाफ एक सशस्त्र आंदोलन था, जिसे वे इस्लाम और पश्तून संस्कृति विरोधी मानते थे.
10 हजार लड़ाकों की जनजातीय सेना
मिर्जा अली खान की सबसे बड़ी ताकत उनकी जनजातीय सेना थी, जिसमें करीब 10 हजार समर्पित सशस्त्र योद्धा शामिल थे. ये लोग पहाड़ी इलाकों में गुरिल्ला युद्ध में माहिर थे. उन्होंने ब्रिटिश सेना के खिलाफ कई बार छापामार हमले किए, रास्ते बंद किए और उनका सैन्य नेटवर्क कमजोर किया.
1936 में जिहाद का ऐलान
प्रेम प्रकाश अपनी किताब History That India Ignored में लिखते हैं, "14 अप्रैल 1936 को मिर्जा अली खान ने अपनी जनजातीय सेना के साथ मिलकर ब्रिटिशर्स के खिलाफ जिहाद का ऐलान किया था." यह कदम उन्होंने तब उठाया जब अंग्रेजों के कई फैसले इस्लाम और पश्तून संस्कृति के खिलाफ प्रतीत हुए. इसके बाद उनकी सेना और ब्रिटिश फौज के बीच कई बार खूनखराबा हुआ. जब ब्रिटिश जमीनी जंग में हारने लगे, तब उन्होंने हवाई हमले शुरू किए, जिससे पश्तूनों को भारी नुकसान उठाना पड़ा.
अफगानिस्तान बना आंदोलन का सुरक्षित ठिकाना
ब्रिटिश सेना की पकड़ से बचने के लिए मिर्जा अली खान ने अफगानिस्तान में अपना ठिकाना बनाया. वहां से उन्होंने वर्षों तक अपना विद्रोही आंदोलन जारी रखा. सीमांत क्षेत्र में उनकी मौजूदगी और प्रभाव इस कदर था कि ब्रिटिश हुकूमत उन्हें न तो दबा सकी और न ही पकड़ सकी.
भारत विभाजन और पश्तूनिस्तान की मांग
दूसरा विश्व युद्ध समाप्त होते ही अंग्रेजों ने भारत छोड़ने की योजना बनानी शुरू की. इस दौरान भारत के विभाजन का प्रस्ताव सामने आया, जिसका मिर्जा अली खान और अब्दुल गफ्फार खान ने कड़ा विरोध किया. उन्होंने मांग की कि यदि भारत का विभाजन होता है, तो पश्तूनों को भी एक अलग राष्ट्र 'पश्तूनिस्तान' दिया जाए.
उन्होंने यह भी कहा कि इस नए राष्ट्र में वे इलाके शामिल किए जाएं जिन्हें कभी महाराजा रणजीत सिंह ने जीतकर सिख साम्राज्य में जोड़ा था. हालांकि यह मांग कभी पूरी नहीं हुई, लेकिन पाकिस्तान में आज भी कुछ क्षेत्र पश्तूनिस्तान की मांग को लेकर संघर्षरत हैं.
इतिहास के पन्नों में गुम एक सच्चा विद्रोही
मिर्जा अली खान की यह बगावती कहानी बहुत हद तक इतिहास के उन पन्नों में दबा दी गई, जिन्हें शायद जानबूझकर नजरअंदाज किया गया. जबकि सच्चाई यह है कि उन्होंने न केवल औपनिवेशिक सत्ता से टक्कर ली, बल्कि धर्म और संस्कृति के नाम पर बनाई गई कृत्रिम सीमाओं को भी स्वीकार नहीं किया.
प्रेम प्रकाश की किताब ने फिर से जीवित की कहानी
यह पूरी कहानी प्रेम प्रकाश की चर्चित पुस्तक History That India Ignored से ली गई है. इस पुस्तक में उन्होंने इतिहास के उन पक्षों को उजागर किया है जिन्हें अक्सर दरकिनार कर दिया गया. किताब में न केवल मिर्जा अली खान, बल्कि मदन लाल धींगरा, वीर सावरकर और अजित सिंह जैसे स्वतंत्रता सेनानियों की अनकही कहानियों को भी शामिल किया गया है.


