ठाकरे ब्रदर्स की धमाकेदार वापसी! क्या पलट जाएगा महाराष्ट्र का खेल?
शनिवार को दो दशक की दूरी खत्म करते हुए उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे एक मंच पर नजर आए हैं. मराठी अस्मिता के नाम पर हुई इस ऐतिहासिक एकजुटता ने महाराष्ट्र की राजनीति में नई हलचल मचा दी है. अब सवाल ये है क्या ठाकरे बंधुओं की जोड़ी वाकई सियासत का पासा पलट सकेगी?

Uddhav Thackeray Raj Thackeray Reunite: उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे शनिवार को दो दशक की दूरी खत्म कर एक बार फिर एक मंच पर नजर आए हैं. मराठी अस्मिता के मुद्दे पर एकजुट हुए दोनों चचेरे भाइयों ने साफ संकेत दे दिया है अब लड़ाई सिर्फ राजनीतिक नहीं, बल्कि पहचान और स्वाभिमान की है.
मुंबई के वर्ली स्थित नेशनल स्पोर्ट्स क्लब ऑफ इंडिया में आयोजित होने वाली ठाकरे रैली से पहले शिवसेना (यूबीटी) और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) के बैनर शहर भर में नजर आने लगे. एक वायरल वीडियो में शेर को जंगली कुत्तों को खदेड़ते दिखाया गया, जो साफ तौर पर यह दर्शाता है कि ठाकरे बंधु वापसी के मूड में हैं.
दलगत राजनीति से परे मराठी मानुष को साधने की कोशिश
इस रैली में जानबूझकर दोनों दलों शिवसेना (यूबीटी) और मनसे के नाम, प्रतीक या झंडों का उपयोग नहीं किया गया. इसका मकसद राजनीतिक बढ़त की होड़ से बचना और 'मराठी मानुष' यानी मूलनिवासी मराठी लोगों को जाति, धर्म और दलगत पहचान से ऊपर उठाकर एकजुट करना बताया गया है.
क्या यह सिर्फ मराठी अस्मिता तक सीमित रहेगा?
यह अभी स्पष्ट नहीं है कि ठाकरे बंधुओं की यह नजदीकी सिर्फ मराठी मुद्दे तक सीमित रहेगी या आगामी निकाय चुनावों में, खासकर मुंबई महानगरपालिका (BMC) चुनाव में, यह एक औपचारिक राजनीतिक गठबंधन में बदलेगी.
शिवसेना (यूबीटी) के एक वरिष्ठ नेता ने कहा, "उद्धव गठबंधन के पक्ष में हैं, लेकिन हमें हर कदम सोच-समझकर उठाना होगा. कोई भी जल्दबाज़ी नुकसानदेह हो सकती है." मनसे खेमे से भी इसी तरह की प्रतिक्रियाएं सामने आईं. एक वरिष्ठ मनसे नेता ने कहा, "राजनीति धैर्य का खेल है. हम वही करेंगे जो मराठी मानुष चाहता है."
बीजेपी की प्रतिक्रिया और भाषा विवाद
मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस, जिनकी सरकार इन दिनों प्राथमिक विद्यालयों में हिंदी को तीसरी भाषा बनाने के फैसले को लेकर बैकफुट पर है, ने शुक्रवार को तीखी चेतावनी दी. उन्होंने कहा, "मराठी गर्व रखना गलत नहीं है, लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि किसी को जबरन, डराकर या मारपीट कर मराठी बोलने पर मजबूर किया जाए."
क्यों एक हुए उद्धव और राज ठाकरे?
2003 में जब बाल ठाकरे ने अपने बेटे उद्धव को शिवसेना का कार्यकारी अध्यक्ष बनाया, तब राज ठाकरे, जो उस समय उत्तराधिकारी की दौड़ में माने जा रहे थे, खुद को ठगा हुआ महसूस करने लगे. 2006 में मनसे बनाकर वे अलग हो गए.
उसके बाद से दोनों पार्टियां एक ही मराठी वोट बैंक के लिए लड़ती रहीं. अब हालात बदल चुके हैं. 2024 के विधानसभा चुनावों में जहां बीजेपी 148 में से 132 सीटें जीतकर सबसे बड़ी पार्टी बनी, वहीं उद्धव की शिवसेना 20 सीटों पर सिमट गई और मनसे एक भी सीट नहीं जीत सकी.
BMC चुनाव: ठाकरे बंधुओं के लिए करो या मरो
फिलहाल बीजेपी को एकनाथ शिंदे की अगुवाई वाली शिवसेना (57 विधायक) और अजित पवार की एनसीपी (41 विधायक) का समर्थन प्राप्त है. ऐसे में ठाकरे बंधुओं के लिए बृहन्मुंबई महानगरपालिका का चुनाव किसी अंतिम परीक्षा से कम नहीं. यही कारण है कि अप्रैल से ही दोनों दलों में मेल-मिलाप की कोशिशें शुरू हो चुकी थीं.
शिवसेना (यूबीटी) की ओर से एक पोस्टर जारी हुआ, "वेल आली आहे, एकत्र येण्याची/मुंबई आणि महाराष्ट्रासाठी/शिवसैनिक तयार आहे/मराठी अस्मितेच्या रक्षणासाठी." (समय आ गया है एक होने का, मुंबई और महाराष्ट्र के लिए, शिवसैनिक तैयार हैं, मराठी अस्मिता की रक्षा के लिए.)
महाराष्ट्र सबसे ऊपर: राज ठाकरे
राज ठाकरे ने एक इंटरव्यू में कहा, "हमारा साथ आना मुश्किल नहीं है. हमारे मतभेद महाराष्ट्र और मराठी लोगों के कल्याण में बाधा बन रहे थे. उद्धव और मेरे बीच के विवाद मामूली थे. महाराष्ट्र इन सबसे बड़ा है."
उसी दिन उद्धव ठाकरे ने मुंबई के एक कार्यक्रम में कहा, "मैं राज ठाकरे के साथ आने के लिए तैयार हूं. छोटे-मोटे मतभेदों को दरकिनार कर, महाराष्ट्र के हित में मैं एकता के लिए तैयार हूं."
क्या काम आएगा मराठी प्लैंक?
मुंबई में मराठी वोट बैंक 30 से 35 प्रतिशत तक माना जाता है. बीजेपी ने अब तक मराठी वोट के लिए शिवसेना पर निर्भरता रखी थी, जबकि मनसे का उपयोग वोटकटवा के तौर पर हुआ. यदि शिवसेना (यूबीटी) और मनसे की यह एकता मजबूत होती है, तो यह शिंदे गुट के साथ-साथ बीजेपी के लिए भी खतरे की घंटी हो सकती है.
हालांकि, बीजेपी को गैर-मराठी वोट बैंक जैसे गुजराती और उत्तर भारतीय मतदाता (कुल मिलाकर 30–35%)—का समर्थन हासिल है. राजनीतिक विश्लेषकों का कहना है कि “मराठी बनाम गैर-मराठी” ध्रुवीकरण बीजेपी के लिए फायदे का सौदा हो सकता है.
आज की सबसे बड़ी चुनौती
उद्धव और राज दोनों ने पिछले वर्षों में मराठी के अलावा अन्य वर्गों को भी साधने की कोशिश की, लेकिन अपेक्षित सफलता नहीं मिली. अब चुनौती यह है कि वे यह साबित करें कि 'मराठी मानुष' अब भी वंचित और संघर्षरत हैं और उन्हें एक मजबूत आवाज की जरूरत है.