'संविधान बचाओ' बनाम इतिहास: अंबेडकर के साथ कांग्रेस के रिश्तों पर उठे सवाल
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने "संविधान बचाओ" जैसे नारों के जरिए खुद को संवैधानिक मूल्यों की संरक्षक के रूप में प्रस्तुत किया. इसी रणनीति ने 2024 के लोकसभा चुनावों में उसे 99 सीटों तक पहुंचाया, जो 2014 के बाद से उसका सबसे अच्छा प्रदर्शन माना जा रहा है.

भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस आज खुद को संविधान की रक्षक और लोकतांत्रिक संस्थाओं की संरक्षक के रूप में प्रस्तुत करती है. "संविधान बचाओ" जैसे नारे इसके हालिया चुनावी अभियानों का प्रमुख हिस्सा रहे हैं. 2024 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को मिली 99 सीटों की सफलता में इस नैरेटिव की बड़ी भूमिका मानी जा रही है. हालांकि, कांग्रेस की यह छवि उसके ऐतिहासिक रिकॉर्ड के साथ अक्सर असंगत दिखती है — खासकर डॉ. बी.आर. आंबेडकर के साथ उसके तनावपूर्ण संबंधों और संवैधानिक प्रक्रियाओं में उसके हस्तक्षेप को देखते हुए.
कांग्रेस और डॉ. आंबेडकर के बीच वैचारिक मतभेद कोई नई बात नहीं है. 1930 के दशक में आंबेडकर द्वारा दलितों के लिए पृथक निर्वाचिका की मांग को गांधी ने आमरण अनशन से रोक दिया था, जिससे मजबूर होकर आंबेडकर ने पूना समझौते पर हस्ताक्षर किए. कई दलित विचारक आज भी इसे एक जबरन थोपे गए समझौते के रूप में देखते हैं.
संविधान की बात, लेकिन इतिहास गवाह नहीं
विडंबना यह है कि संविधान निर्माण जैसे ऐतिहासिक कार्य में प्रमुख भूमिका निभाने के बावजूद, कांग्रेस ने आंबेडकर को संविधान सभा के लिए मनोनीत नहीं किया. वे मुस्लिम लीग की मदद से बंगाल से चुने गए थे. विभाजन के बाद ही कांग्रेस ने उन्हें बंबई से निर्वाचित होने का अवसर दिया.
कांग्रेस की अंबेडकर नीति पर बहस
कानून मंत्री बनने के बाद, अंबेडकर को नेहरू सरकार से कई स्तरों पर टकराव का सामना करना पड़ा. आरक्षण, सामाजिक सुधार और खासकर हिंदू कोड बिल पर उनकी सोच से नेहरू असहमत थे, जिसके चलते 1951 में अंबेडकर ने इस्तीफा दे दिया. कांग्रेस ने बाद में चुनावों में आंबेडकर के खिलाफ उम्मीदवार उतारकर उन्हें हराने की कोशिश की.
क्या इतिहास 'संविधान बचाओ' की राह में रोड़ा है?
कांग्रेस का संवैधानिक संशोधनों का रिकॉर्ड भी आलोचना के घेरे में रहा है. 1951 में पहला संशोधन बोलने की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने वाला था, जिसकी अंबेडकर ने आलोचना की थी. सबसे कड़े आलोचकों का निशाना इंदिरा गांधी के आपातकाल के दौरान हुए 39वें और 42वें संशोधनों पर रहता है, जिनके जरिए कार्यपालिका को निरंकुश शक्तियां दी गईं.
कांग्रेस की अंबेडकर नीति पर बहस
मंडल आयोग की रिपोर्ट को वर्षों तक दबाए रखना हो या दलित नेताओं को प्रतीकात्मक पदों तक सीमित रखना—कांग्रेस की सामाजिक न्याय को लेकर प्रतिबद्धता अक्सर संदेह के घेरे में रही है. भाजपा ने हाल के वर्षों में आंबेडकर को अपनी राजनीति का केंद्र बनाकर कांग्रेस को चुनौती दी है. हालांकि आलोचक इसे राजनीतिक प्रतीकवाद मानते हैं, फिर भी इससे कांग्रेस की विरासत पर गंभीर सवाल खड़े होते हैं. आज जब कांग्रेस संविधान की रक्षा की बात करती है, तो उसे अपने अतीत का सामना भी करना होगा—जहां वादों और व्यवहार के बीच खाई अक्सर गहरी रही है.


