भारत के भूतिया स्कूल...5,149 सरकारी स्कूलों में शिक्षक और इमारत तो हैं, लेकिन छात्र कहां हुए गायब?
भारत में 2024-25 के दौरान 5,149 सरकारी स्कूलों में एक भी छात्र नहीं है. तेलंगाना और पश्चिम बंगाल में समस्या सबसे गंभीर है. बदलती पसंद, प्रवासन और प्रशासनिक सुस्ती के कारण शिक्षा व्यवस्था पर गंभीर सवाल खड़े हो रहे हैं.

नई दिल्लीः देशभर में सरकारी स्कूलों की इमारतें खड़ी हैं, बोर्ड लगे हैं, शिक्षक नियुक्त हैं और बजट भी जारी होता है. लेकिन संसद में पेश ताजा सरकारी आंकड़ों ने शिक्षा व्यवस्था की एक चौंकाने वाली तस्वीर सामने रख दी है. वर्ष 2024-25 में भारत के 5,149 सरकारी स्कूल ऐसे हैं, जहां एक भी छात्र नामांकित नहीं है. यानी स्कूल हैं, लेकिन बच्चे नहीं.
आंकड़े क्या कहते हैं?
भारत में कुल लगभग 10.13 लाख सरकारी स्कूल हैं. इनमें से न सिर्फ 5,149 स्कूल पूरी तरह खाली हैं, बल्कि 65,054 स्कूलों में 10 से भी कम छात्र पढ़ रहे हैं. हैरानी की बात यह है कि ऐसे स्कूलों में करीब 1.44 लाख शिक्षक तैनात हैं. पिछले दो वर्षों में कम या शून्य नामांकन वाले स्कूलों की संख्या में 24 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है, जो साफ तौर पर व्यवस्था की गहरी खामियों की ओर इशारा करती है.
दो राज्यों में सिमटी सबसे बड़ी समस्या
इन खाली स्कूलों की समस्या पूरे देश में समान रूप से नहीं फैली है. लगभग 70 प्रतिशत शून्य नामांकन वाले स्कूल सिर्फ दो राज्यों तेलंगाना और पश्चिम बंगाल में हैं. जिला स्तर पर देखें तो तेलंगाना के सभी 33 जिले और पश्चिम बंगाल के 23 में से 22 जिले ऐसे हैं, जहां 10 या उससे अधिक सरकारी स्कूलों में एक भी छात्र नहीं है.
शीर्ष पांच राज्य, जहां स्थिति गंभीर
पश्चिम बंगाल में 6,703 स्कूल ऐसे हैं, जहां 10 से कम या शून्य छात्र हैं और इनमें 27,000 से अधिक शिक्षक तैनात हैं. उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान और तेलंगाना भी इस सूची में ऊपर हैं. हालांकि इन राज्यों में बच्चों की संख्या कम नहीं हुई है, लेकिन स्कूलों और छात्रों के बीच तालमेल टूट गया है.
बच्चे कहां जा रहे हैं?
विशेषज्ञों के मुताबिक, इसका कारण जनसंख्या में गिरावट नहीं बल्कि स्कूलों के प्रति बदलती पसंद है. कई परिवार सरकारी स्कूलों की गुणवत्ता, सुविधाओं और माध्यम को लेकर असंतुष्ट हैं और अपने बच्चों को निजी या सहायता प्राप्त स्कूलों में भेज रहे हैं. खासतौर पर प्राथमिक स्तर पर यह रुझान ज्यादा दिख रहा है.
प्रशासनिक सुस्ती
स्कूल बंद करना या उनका विलय करना राजनीतिक रूप से संवेदनशील मुद्दा है. विरोध, आरोप और चुनावी नुकसान के डर से कई राज्य सरकारें ऐसे स्कूलों को कागजों में चालू रखती हैं, भले ही कक्षाएं खाली हों. नतीजा यह होता है कि संसाधन खर्च होते रहते हैं, लेकिन शिक्षा का उद्देश्य पूरा नहीं हो पाता.
प्रवासन और दूरी भी बड़ी वजह
ग्रामीण, आदिवासी और रेगिस्तानी इलाकों में मौसमी पलायन भी एक बड़ा कारण है. रोजगार की तलाश में परिवार शहरों की ओर चले जाते हैं, जिससे गांवों के स्कूल खाली रह जाते हैं. कई जगह स्कूल तो हैं, लेकिन बच्चों को वहां तक पहुंचने के लिए लंबी और असुरक्षित दूरी तय करनी पड़ती है.
समाधान की दुविधा
सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि ऐसे स्कूलों को बंद किया जाए या बनाए रखा जाए. विलय से संसाधनों की बचत हो सकती है, लेकिन इससे बच्चों को लंबी दूरी तय करनी पड़ सकती है, जिससे ड्रॉपआउट का खतरा बढ़ जाता है. वहीं, छोटे स्कूल चलाने से शिक्षा की गुणवत्ता प्रभावित होती है.
शिक्षा व्यवस्था के लिए चेतावनी
ये ‘भूतिया स्कूल’ सिर्फ आंकड़ों की समस्या नहीं हैं, बल्कि शिक्षा नीति के लिए एक गंभीर चेतावनी हैं. सवाल यह नहीं कि स्कूल कितने हैं, बल्कि यह है कि क्या वे सही जगह, सही संसाधनों और सही जरूरतों के साथ मौजूद हैं. अगर समय रहते ठोस कदम नहीं उठाए गए, तो सबसे ज्यादा नुकसान उन बच्चों का होगा, जिनके लिए ये स्कूल बनाए गए थे.


