दो युग, एक मकसद... इंदिरा गांधी या नरेंद्र मोदी, जानें किसने रचा नया भारत?
Indira Gandhi vs Narendra Modi: इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी भारतीय राजनीति के दो युगों के प्रतीक हैं. दोनों ने अलग-अलग दौर में देश को नेतृत्व दिया और नई दिशा देने की कोशिश की. सवाल यह है कि इनमें से किसने भारत की आत्मा को अधिक गहराई से छुआ?

Indira Gandhi vs Narendra Modi: भारतीय राजनीति में अगर दो शख्सियतों ने चट्टान की तरह अपनी पहचान बनाई है, तो वे हैं इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी. दोनों नेता अलग-अलग युगों में उभरे, उनके सोचने का तरीका अलग था, हालात अलग थे लेकिन उद्देश्य एक ही था- भारत को एक मजबूत राष्ट्र बनाना.
आज जब देश एक बार फिर ऐतिहासिक मोड़ पर खड़ा है, तो यह सवाल फिर उठता है किसने भारत की आत्मा को अधिक गहराई से छुआ? कौन था भारत का असली निर्णायक नेता?
सत्ता का स्वरूप
इंदिरा गांधी के कार्यकाल में सत्ता की पूरी बागडोर उनके हाथों में सिमट गई थी. वे स्वयं निर्णय लेती थीं और कैबिनेट महज मुहर लगाने का माध्यम बनकर रह गया था. उनका नेतृत्व एक "राष्ट्रपति प्रणाली" जैसा नजर आने लगा था.
वहीं नरेंद्र मोदी भी मजबूत नेतृत्व का उदाहरण बने, लेकिन वे खुद को बार-बार "प्रधान सेवक" बताते हैं. आलोचकों का मानना है कि उनके शासन में भी निर्णय शीर्ष स्तर पर लिए जाते हैं और मंत्री केवल निष्पादक की भूमिका निभाते हैं.
नीतियों की सोच
इंदिरा गांधी की नीतियों की आत्मा समाजवाद थी. उन्होंने 'गरीबी हटाओ' का नारा देकर जनसमर्थन पाया, बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया और कई जनकल्याण योजनाएं शुरू कीं.
मोदी सरकार ने पूंजीवाद को नई परिभाषा दी 'मेक इन इंडिया', 'स्टार्टअप इंडिया', 'डिजिटल इंडिया' जैसे कार्यक्रमों से बाजार को खुला छोड़ा, लेकिन 'जन धन', 'उज्ज्वला', 'आयुष्मान' जैसी योजनाओं के जरिए समावेशी विकास का दावा भी किया.
लोकतंत्र पर पकड़ या प्रतिबद्धता?
1975 की इमरजेंसी भारतीय लोकतंत्र का सबसे बड़ा संकट थी. इंदिरा गांधी ने प्रेस, न्यायपालिका और जनता की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाया, ताकि चुनावी चुनौती से बचा जा सके. उन्हें "तानाशाह" तक कहा गया.
पीएम मोदी पर भी संस्थानों को प्रभावित करने के आरोप लगे. सीबीआई, ईडी और मीडिया की स्वतंत्रता पर सवाल उठे. लेकिन संवैधानिक आपातकाल जैसी स्थिति नहीं बनी. आज के "डिजिटल युग" में सत्ता का नियंत्रण परोक्ष रूप से नजर आता है.
जनसंपर्क का माध्यम
इंदिरा गांधी का सबसे बड़ा हथियार उनका करिश्मा था. वे बिना तकनीक के भी जनता से जुड़ जाती थीं. उनके भाषणों का असर देश की आत्मा को झकझोर देता था.
नरेंद्र मोदी इस युग के "डिजिटल जन नेता" हैं. कैमरा, सोशल मीडिया, 'मन की बात' और 3D रैलियां उनके संवाद के मुख्य माध्यम हैं.
युद्ध और राष्ट्रवाद
1971 का भारत-पाक युद्ध इंदिरा गांधी की सबसे बड़ी जीत थी. बांग्लादेश का निर्माण हुआ और उन्हें "दुर्गा" की संज्ञा मिली.
पीएम मोदी ने भी राष्ट्रवाद को नई ऊंचाइयों पर पहुंचाया. सर्जिकल स्ट्राइक, बालाकोट एयर स्ट्राइक और धारा 370 हटाने जैसे कदम उठाए. लेकिन सवाल उठता है क्या यह राष्ट्रनिर्माण है या राष्ट्रीय भावनाओं का राजनीतिक उपयोग?
महिला सशक्तिकरण: उदाहरण बनाम योजनाएं
इंदिरा गांधी स्वयं नारी शक्ति की प्रतीक थीं, लेकिन उन्होंने महिलाओं के लिए कोई विशेष नीति नहीं बनाई.
मोदी सरकार ने 'बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ', महिला जन धन खाते, गैस कनेक्शन और शौचालय जैसी योजनाओं के जरिए ग्रामीण महिलाओं को जोड़ने का प्रयास किया.
आर्थिक सोच
इंदिरा गांधी की आर्थिक नीतियां भूमि, खाद्यान्न और सार्वजनिक क्षेत्र पर केंद्रित थीं. उन्होंने हरित क्रांति को बढ़ावा दिया.
पीएम मोदी की सोच मोबाइल डेटा और डिजिटल बैंकिंग तक फैली है. आधार, UPI और ई-नाम जैसे प्लेटफॉर्म के ज़रिए उन्होंने अर्थव्यवस्था को तकनीक से जोड़ा.
विरासत की छाया में आत्मनिर्माण
इंदिरा गांधी एक राजनीतिक विरासत में जन्मी थीं. पंडित नेहरू की बेटी होने का असर उनके सत्ता में आने पर पड़ा.
पीएम मोदी ने स्वयं को एक चाय बेचने वाले के बेटे के रूप में स्थापित किया. उनकी राजनीति वंशवाद के खिलाफ एक आंदोलन बन गई.
क्या भारत को चाहिए एक निर्णायक नेता?
इंदिरा गांधी ने भारत को अनुशासन सिखाया, लेकिन इसकी कीमत लोकतंत्र ने चुकाई. नरेंद्र मोदी ने भारत को तेज विकास की राह दिखाई, लेकिन इसकी कीमत संस्थागत स्वतंत्रता ने चुकाई. दोनों नेताओं ने भारत को दिशा दी एक ने लौह-मुठ्ठी से, दूसरे ने डिजिटल ताकत से.
लेकिन असली सवाल यह है क्या भारत को एक निर्णायक नेता की जरूरत है या विवेकपूर्ण नेतृत्व की परंपरा की?
इंदिरा गांधी और नरेंद्र मोदी दोनों अपने समय की पहचान हैं. एक ने लोकतंत्र को बचाया, दूसरे ने उसे संभाला. लेकिन भारत का भविष्य तय करेगा जनमत, जो नीति, नैतिकता और नागरिक चेतना को निर्णायक मानेगा, किसी एक व्यक्ति को नहीं.


