मराठी अस्मिता से झुकी सत्ता या आंदोलन ने छीनी कमान? भाषा की सियासत पर उठे पांच सवाल!
तेज़ विरोध, सामाजिक दबाव और मराठी अस्मिता की लहर के आगे महाराष्ट्र सरकार ने हिंदी को पहली कक्षा से अनिवार्य करने का फैसला वापस ले लिया. अब विशेषज्ञ समिति निर्णय लेगी.

National New: एक चौंकाने वाले यू-टर्न में महाराष्ट्र सरकार ने पहली कक्षा से हिंदी अनिवार्य करने का आदेश रद्द कर दिया है। यह फैसला व्यापक जनविरोध और मराठी अस्मिता के आंदोलन के बाद लिया गया। बीजेपी की अगुवाई वाली सरकार ने मानसून सत्र से ठीक पहले यह कदम उठाया। 16 अप्रैल और 17 जून को जारी किए गए दोनों सरकारी आदेशों को निरस्त कर दिया गया। सीएम देवेंद्र फडणवीस ने विशेषज्ञ समिति के गठन की घोषणा की।
अब त्रिभाषा फॉर्मूले पर आगे की रणनीति समिति तय करेगी। इस मुद्दे पर विपक्षी दलों ने दुर्लभ एकता दिखाई। शिवसेना (उद्धव गुट), राज ठाकरे की मनसे और शरद पवार की एनसीपी (एसपी) ने साझा आंदोलन का आह्वान किया था। 5 जुलाई को मुंबई में महामोर्चा निकाला जाना था। इस आंदोलन को मिल रही व्यापक जनसमर्थन ने सरकार की चिंता बढ़ा दी। स्थानीय निकाय चुनावों से पहले सरकार कोई जोखिम नहीं लेना चाहती थी। फैसले की वापसी को विपक्ष ने अपनी जीत बताया।
ठाकरे-राज की जोड़ी ने बदल दी चाल
हिंदी को अनिवार्य करने के सरकारी फैसले ने महाराष्ट्र में राजनीतिक धुर विरोधियों को एक मंच पर ला दिया. शिवसेना (उद्धव), मनसे, कांग्रेस और एनसीपी (एसपी) जैसे दल एकजुट हो गए. उद्धव ठाकरे और राज ठाकरे पहली बार साथ आए और 5 जुलाई के महामोर्चा की घोषणा की. शिवसेना ने प्रतीकात्मक विरोध में “हिंदी किताबों की होलिका” जलाई. शरद पवार ने इस मोर्चे को समर्थन देकर सरकार पर दबाव और बढ़ा दिया. ये तय हो गया कि अगर फैसला जारी रहा, तो विपक्ष इसे जनांदोलन बना देगा.
2️⃣ मराठी पहचान पर हमले का भावनात्मक तूफान
सरकार के फैसले को जनभावनाओं ने सांस्कृतिक हमले के रूप में देखा. लोगों में ये धारणा बनी कि हिंदी थोपी जा रही है. मराठी अस्मिता को लेकर पहले भी भावनाएं भड़की हैं और यह मुद्दा फिर से गरमा गया. ठाकरे परिवार की अस्मिता की राजनीति को फिर से धार मिल गई. मराठी बनाम हिंदी की पुरानी बहसों को नया हवा मिल गया. इस बार जनता इसे अपने आत्मसम्मान से जोड़ बैठी.
3️⃣ शिक्षा नहीं, बोझ लगा सरकार का फैसला
बच्चों पर एक और भाषा लादने के विरोध में शिक्षक, अभिभावक और सामाजिक संगठन सड़कों पर उतर आए. सोशल मीडिया पर “भाषाई हमले” का नैरेटिव बन गया. अभिभावकों ने कहा कि ये फैसला बिना ज़मीन की समझ के लिया गया. कई साहित्यकारों और शिक्षाविदों ने इसे सीधे ‘मराठी के अस्तित्व पर चोट’ बताया. ये विरोध अब सड़कों पर भी दिखने लगा था. सरकार को अब हर मोर्चे से आवाज़ें सुनाई देने लगी थीं.
4️⃣ वोट खिसकने के डर से बदल गई रणनीति
निकाय चुनाव सिर पर हैं और मराठी मतदाता नाराज़ दिख रहे थे. विधानसभा में मिली सफलता के बाद लोकसभा में महायुति का प्रदर्शन कमजोर रहा. सरकार को डर था कि हिंदी मुद्दा विपक्ष के हाथ में एक बड़ा हथियार न बन जाए. जनभावनाओं को नजरअंदाज़ करना इस समय आत्मघाती हो सकता था. इससे पहले कि विरोध आंदोलन में बदले, सरकार ने पलटी मार ली. राजनीतिक नुकसान से बचने के लिए ये कदम अनिवार्य हो गया था.
5️⃣ नीति का नक्शा अधूरा, सवालों की बौछार
त्रिभाषा नीति को लागू करने का खाका सरकार ने अधूरा रखा. क्या विकल्प होंगे? छात्रों को किन भाषाओं का चयन मिलेगा? इस पर कोई स्पष्टता नहीं थी. असमंजस और अफवाहों ने नाराज़गी को बढ़ाया. इसी भ्रम को देखते हुए कैबिनेट ने दोनों सरकारी आदेशों को रद्द कर दिया. अब विशेषज्ञ समिति — डॉ नरेंद्र जाधव की अध्यक्षता में — यह तय करेगी कि नीति कब, कैसे और किन शर्तों के साथ लागू हो.


