अब लड़ाई सत्ता की नहीं, पहचान की है-नेता वही बनेगा जिसे जनता का भरोसा मिलेगा

जब सियासी विरासतें आपस में टकराती हैं, तो असली लड़ाई जनता के भरोसे की होती है। नेता बनने की दौड़ में अब सिर्फ परिवार का नाम नहीं, बल्कि जनता की पसंद और जनविश्वास सबसे बड़ा पैमाना बन चुका है।

Lalit Sharma
Edited By: Lalit Sharma

नई दिल्ली. भारतीय राजनीति में विरासत एक पुराना चलन है, लेकिन अब इस विरासत को चुनौती दे रही है जनआकांक्षा। कांग्रेस से लेकर समाजवादी पार्टी तक, और शिवसेना से लेकर अकाली दल तक, हर जगह राजनैतिक घरानों की अगली पीढ़ी खुद को साबित करने की लड़ाई में है। लेकिन सवाल सिर्फ इतना नहीं कि कौन उत्तराधिकारी होगा, बल्कि ये भी कि क्या वो जनता की कसौटी पर खरा उतर पाएगा?

कांग्रेस: राहुल बनाम प्रियंका—ताज किसे मिलेगा?

कांग्रेस में नेतृत्व को लेकर दो चेहरों की चर्चा हमेशा रहती है। राहुल गांधी को शीर्ष नेतृत्व का स्वाभाविक वारिस माना गया, लेकिन ज़मीन पर प्रियंका गांधी की भाषा, हावभाव और शैली ने कई बार लोगों को इंदिरा गांधी की याद दिलाई है। प्रियंका की सभाओं में लोगों की भागीदारी और उनके सीधे संवाद की शैली ने कांग्रेस के अंदरूनी हलकों में नई बहस को जन्म दिया है। राहुल गांधी भले ही 'भारत जोड़ो यात्रा' जैसी मुहिम से अपनी सक्रियता दिखा चुके हों, लेकिन संगठनात्मक नतीजे अब तक कमजोर रहे हैं। सवाल ये है कि क्या कांग्रेस की अगली रणनीति प्रियंका कार्ड खेलने की होगी, या पार्टी अभी भी पारंपरिक उत्तराधिकार के रास्ते पर ही चलेगी?

क्षेत्रीय दलों में भी विरासत संकट

समाजवादी पार्टी में अखिलेश यादव ने खुद को स्थापित किया, लेकिन अंदरूनी मतभेद लगातार उनके लिए चुनौती बने हुए हैं। रामगोपाल यादव से लेकर शिवपाल यादव तक, कई पुराने चेहरों से उनके रिश्ते में तनाव रहा है, जो पार्टी के भीतर भरोसे की कमी को दर्शाता है। यूपी में सत्ता से बाहर होने के बाद अखिलेश पर यह दबाव भी है कि वह पार्टी को नई दिशा दें, पर जनता का भरोसा धीरे-धीरे खिसक रहा है। वहीं RJD में तेजस्वी यादव का कद बढ़ा ज़रूर है, लेकिन सवाल ये है कि क्या वे पार्टी के पुराने नेताओं का भरोसा पूरी तरह जीत पाए हैं या अभी भी उन्हें अपने पिता की छाया से बाहर निकलने की जरूरत है?

ठाकरे और बादल: जब परिवार ही चुनौती बन जाए

महाराष्ट्र में उद्धव और आदित्य ठाकरे की जोड़ी को नई शिवसेना खड़ी करनी है, लेकिन एकनाथ शिंदे की बगावत ने रास्ता कठिन बना दिया है। आदित्य ठाकरे की राजनीतिक शैली शहरी युवाओं को लुभाती है, पर ग्रामीण वोट बैंक में उनकी पहचान अभी अधूरी है। उद्धव के लिए भी चुनौती यह है कि वे पार्टी के कार्यकर्ताओं में बाला साहेब जैसा जोश और स्पष्टता फिर से भर सकें। पंजाब में सुखबीर बादल को अपने पिता प्रकाश सिंह बादल की विरासत संभालनी है, लेकिन पार्टी की गिरती पकड़ बताती है कि शायद अब नया नेतृत्व तलाशा जा रहा है—जो संभव है, अकाली दल के पारंपरिक दायरे से बाहर का हो।

BJP में भी है उत्तराधिकार का मौन युद्ध

भले ही बीजेपी खुद को परिवारवाद से अलग दिखाती है, लेकिन यहां भी योगी आदित्यनाथ और अमित शाह को प्रधानमंत्री मोदी के बाद का संभावित चेहरा माना जा रहा है। योगी की बढ़ती लोकप्रियता, विशेषकर उत्तर भारत में, उन्हें एक जननायक की छवि में स्थापित करती जा रही है, जो पार्टी के पारंपरिक चेहरों से अलग है। अमित शाह का चुनावी रिकॉर्ड, संगठनात्मक पकड़ और नीति निर्धारण में दखल उन्हें सत्ता की अगली पंक्ति में मजबूती से खड़ा करता है। बीजेपी भले ही इस पर सार्वजनिक बहस न करे, लेकिन अंदरूनी रणनीति में यह साफ़ है कि उत्तराधिकार की तैयारी अब खुलकर नहीं, मगर गहराई से चल रही है।

अब जनता तय करेगी—राजकुमार या राजा?

2024 के बाद भारत की राजनीति का चेहरा पूरी तरह बदल चुका है। अब जनता सिर्फ चेहरों और विरासतों के नाम पर भरोसा नहीं करती। मतदाता अब नाम नहीं, काम देखता है। जो काम करेगा, वही राज करेगा—यही जनमानस की सोच बन चुकी है। नई पीढ़ी को अब ‘युवराज’ नहीं, ‘लीडर’ चाहिए—वो नेता जो फैसले ले, ज़िम्मेदारी उठाए और जनता की ज़ुबान बोले। वो दौर अब बीत चुका है जब किसी परिवार का नाम ही सत्ता की गारंटी होता था।
अब चुनाव सिर्फ किसी को ताज पहनाने का नहीं, बल्कि उसकी हक़दारी तय करने का ज़रिया बन चुका है। सोशल मीडिया के ज़माने में हर बयान, हर गलती और हर वादा जनता के रडार पर है। जनता अब आंख बंद कर किसी खानदान को वोट नहीं देती—वो सवाल पूछती है, हिसाब मांगती है और भविष्य तय करती है। राजनीति अब सत्ता की नहीं, साख की लड़ाई बन चुकी है।

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11 June 2025, 04:41 PM IST

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