ट्राई लैंग्वेज पॉलिसी का क्यों होता है विरोध? जानें विवाद की 5 प्रमुख वजहें
भारत की राष्ट्रीय शिक्षा नीति (NEP) 2020 में शामिल त्रि-भाषा नीति ने देशभर में बहस पैदा कर दिया है. यह नीति, जो स्कूलों में स्थानीय भाषा, हिंदी और अंग्रेजी को पढ़ाने पर जोर देती है, विशेष रूप से गैर-हिंदी भाषी राज्यों में विवाद का केंद्र बनी हुई है. कई लोग इसे अपनी भाषाई और सांस्कृतिक पहचान पर खतरे के रूप में देखते हैं, जबकि अन्य इसे शिक्षा प्रणाली पर अनावश्यक बोझ मानते हैं.

Three Language Policy Opposition: महाराष्ट्र के स्कूलों में हिन्दी पढानें के लिए जारी हुए सरकारी आदेश का विपक्षी दलों समेत अनेक संगठनों ने विरोध किया. और सरकार ने दबाव मेम आकर आदेश रद किया. यह आदेश केंद्र की ट्राई लैंग्वेज को लेकर जारी किया हुआ था. राज्य इसको लेकर विरोध जताते रहें है. तो आईए जानते हैं क्यों राज्यों को इस पॉलिसी से आपत्ति है.
1. हिंदी को थोपने की आशंका
गैर-हिंदी भाषी राज्यों जैसे तमिलनाडु, कर्नाटक और पश्चिम बंगाल में त्रि-भाषा नीति का विरोध सबसे ज्यादा मुखर है. इन राज्यों में इसे हिंदी को अनिवार्य करने की रणनीति के रूप में देखा जा रहा है. जो स्थानीय भाषाओं और संस्कृति को कमजोर कर सकती है. तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने स्पष्ट शब्दों में कहा, “हमारी भाषा और संस्कृति पर हिंदी का थोपा जाना स्वीकार्य नहीं है. यह हमारी पहचान को कमजोर करने की साजिश है.” यह भावना क्षेत्रीय अस्मिता को लेकर गहरी चिंता को दर्शाती है.
2. क्षेत्रीय भाषाओं पर खतरा
भारत की भाषाई विविधता को संरक्षित करने की मांग लंबे समय से चली आ रही है. त्रि-भाषा नीति में हिंदी और अंग्रेजी को प्राथमिकता देने से स्थानीय भाषाओं का महत्व कम होने का डर है. भाषा विशेषज्ञों का मानना है, “क्षेत्रीय भाषाओं को प्राथमिकता न देना न केवल सांस्कृतिक विविधता को कम करता है. बल्कि बच्चों की सीखने की क्षमता को भी प्रभावित करता है.” यह नीति क्षेत्रीय भाषाओं को हाशिए पर धकेल सकती है, जिससे विरोध और तेज हो रहा है.
3. छात्रों और शिक्षकों पर अतिरिक्त दबाव
तीन भाषाओं को अनिवार्य करने से छात्रों और शिक्षकों पर अतिरिक्त बोझ पड़ रहा है. विशेष रूप से ग्रामीण और कम संसाधन वाले स्कूलों में, जहां पहले से ही शिक्षण सामग्री और प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी है, इस नीति को लागू करना मुश्किल है. एक शिक्षक ने चिंता जताते हुए कहा, “हमारे पास पहले से ही अंग्रेजी और स्थानीय भाषा पढ़ाने के लिए संसाधन कम हैं. अब हिंदी को अनिवार्य करना अव्यवहारिक है.” इससे शिक्षा की गुणवत्ता पर भी असर पड़ सकता है.
4. राजनीतिक असहमति और विवाद
त्रि-भाषा नीति को कई बार राजनीतिक रंग देकर केंद्र सरकार की ‘हिंदी केंद्रित’ नीति के रूप में पेश किया गया है. दक्षिण भारत में, जहां द्रविड़ आंदोलन का प्रभाव मजबूत है, इसे राज्यों की स्वायत्तता पर हमले के रूप में देखा जा रहा है. डीएमके नेता कनिमोझी ने कहा, “यह नीति संघीय ढांचे का उल्लंघन करती है और राज्यों की भाषाई स्वतंत्रता को कमजोर करती है.” इस तरह के राजनीतिक बयान नीति के खिलाफ माहौल को और भड़का रहे हैं.
5. लागू करने में व्यावहारिक कठिनाइयां
नीति को लागू करने में कई व्यावहारिक चुनौतियां सामने आ रही हैं, जैसे प्रशिक्षित शिक्षकों की कमी, उपयुक्त पाठ्यपुस्तकों का अभाव और विभिन्न भाषाओं के लिए प्रभावी शिक्षण विधियों की अनुपस्थिति. विशेषज्ञों का कहना है कि इन कमियों के बिना नीति का प्रभावी कार्यान्वयन असंभव है. तो वही कुछ शिक्षा नीति विश्लेषक का कहना है कि अगर इसे ठीक से लागू नहीं किया गया, तो यह नीति शिक्षा की गुणवत्ता को कम कर सकती है.


