शांति की डोर पर संकट! ताशकंद समझौते से पीछे हटने की तैयारी में पाकिस्तान
India-Pakistan tension: पाकिस्तान एक बड़ा कदम उठाने की तैयारी में है. वह 1965 के भारत-पाक युद्ध के बाद हुए ऐतिहासिक ताशकंद समझौते से पीछे हटने पर विचार कर रहा है, जिसने उस समय दोनों देशों के बीच शांति स्थापित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.

Pakistan to end Tashkent Agreement: पहलगाम में हुए भीषण आतंकी हमले ने भारत और पाकिस्तान के बीच पहले से तनावपूर्ण रिश्तों को ज्वालामुखी की तरह फोड़ दिया है. भारत जहां सिंधु जल संधि पर रोक लगाकर सीधा संदेश दे रहा है कि अब सब्र की हद पार हो चुकी है, वहीं पाकिस्तान ने भी पलटवार के तौर पर शिमला समझौता रद्द करने की धमकी दे डाली है. अब खबर आ रही है कि पाकिस्तान 1966 के ताशकंद समझौते को भी खत्म करने पर विचार कर रहा है — यानी अब पुल नहीं, रास्ते जलाए जा रहे हैं.
ताशकंद: शांति की वो आखिरी उम्मीद?
ताशकंद समझौता सिर्फ एक कागज़ी करार नहीं था. यह 1965 की जंग के बाद शांति की आखिरी डोर थी, जिसे भारत के प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री और पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब खान ने 10 जनवरी 1966 को ताशकंद (अब उज्बेकिस्तान की राजधानी) में साइन किया था. इस ऐतिहासिक समझौते की मध्यस्थता सोवियत संघ के प्रधानमंत्री एलेक्सी कोसिगिन ने की थी. इसका मकसद था – युद्ध के बाद रिश्तों को सामान्य करना और भविष्य में टकराव से बचना. पर अब, जब पाकिस्तान खुद इस समझौते से पीछे हटने की बात कर रहा है, तो ये संकेत है कि वो अपने अतीत की शांति-प्रतिबद्धताओं को खुलेआम नकारने जा रहा है.
पहलगाम: आतंक का ताज़ा चेहरा
13 अप्रैल को पहलगाम में हुआ आतंकी हमला, जिसमें 26 निर्दोष हिंदू श्रद्धालु मारे गए, एक बेहद दर्दनाक मोड़ था. लश्कर-ए-तैयबा से जुड़े संगठन द रेसिस्टेंस फ्रंट ने हमले की जिम्मेदारी ली है. भारत ने इस हमले को निर्णायक मोड़ मानते हुए सिंधु जल समझौता निलंबित कर दिया. यानी अब पाकिस्तान को बहती नदियों का पानी भी बिना भरोसे नहीं मिलेगा.
पाकिस्तान का ताशकंद से हटना: रणनीति या हताशा?
विश्लेषकों का मानना है कि पाकिस्तान का यह कदम प्रतिक्रियावादी है, रणनीतिक नहीं. ताशकंद समझौता भले ही आज की कूटनीतिक परिस्थितियों में कम प्रभावी दिखे, पर इसे तोड़ना उस आखिरी मंच को भी बर्बाद कर देना है, जहां दोनों देश कभी आपस में बात कर सकते थे. इससे एक बात और साफ़ होती है – पाकिस्तान अब आक्रोश और आक्रमण की नीति अपना रहा है, बातचीत या समझदारी की नहीं.
क्या अब संवाद के सारे रास्ते बंद?
भारत ने जिस तरह सिंधु जल संधि रोकी और पाकिस्तान ने शिमला व ताशकंद समझौते को रद्द करने की बात छेड़ी, उससे साफ है कि अब दोनों देशों के बीच कूटनीतिक संवाद की जमीन खिसक रही है. ऐसे में सवाल उठता है — क्या दोनों देश फिर से 1965 या 1971 जैसे हालात की ओर बढ़ रहे हैं? अगर ऐसा है, तो नुकसान सिर्फ राजनीतिक नहीं, मानवीय भी होगा — और इसकी कीमत आने वाली पीढ़ियां चुकाएंगी.


