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दो हत्यारों को फांसी से मिली राहत, सुप्रीम कोर्ट ने दी आजीवन कारावास की सजा

सुप्रीम कोर्ट ने दो अलग-अलग मामलों में फांसी की सजा पाए दोषियों की सजा को उम्रकैद में बदल दिया है. सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया है कि वे अपने जीवन का शेष समय जेल में ही बिताएंगे, बिना किसी रिहाई के अधिकार के. अदालत ने यह निर्णय दोषियों की मानसिक स्थिति, सामाजिक पृष्ठभूमि और जेल में उनके व्यवहार को ध्यान में रखते हुए सुनाया गया है.

Shivani Mishra
Edited By: Shivani Mishra

Supreme Court: सुप्रीम कोर्ट ने बुधवार को दो अलग-अलग मामलों में दोषी ठहराए गए दो व्यक्तियों की फांसी की सजा को उम्रकैद में बदल दिया है. अदालत ने यह निर्णय सामाजिक पृष्ठभूमि, मनोवैज्ञानिक विश्लेषण और दोषियों के जीवन से जुड़े अनेक रहमदिली के पहलुओं को ध्यान में रखते हुए लिया है. कोर्ट ने स्पष्ट किया कि अब ये दोनों दोषी बिना किसी रिहाई के अपने शेष जीवन जेल में बिताएंगे.

जस्टिस विक्रम नाथ की अध्यक्षता वाली पीठ में जस्टिस संजय करोल और संदीप मेहता भी शामिल थे. पीठ ने अपने फैसले में कहा कि मौत की सजा तय करते वक्त केवल अपराध की क्रूरता पर ही नहीं, बल्कि दोषी की मानसिक और सामाजिक स्थिति का भी संज्ञान लेना चाहिए. अदालत ने यह भी पाया कि दोनों मामलों में हाई कोर्ट ने इस दिशा में उचित विचार नहीं किया.

पत्नी, साली और तीन बच्चों की बेरहमी से हत्या

पहला मामला कर्नाटक का है, जहां एक व्यक्ति बायलुरु थिप्पैया ने अपनी पत्नी, बहन और तीन बच्चों को बेरहमी से मार डाला था. वह यह मान बैठा था कि उसकी पत्नी का चरित्र ठीक नहीं है और बच्चों का जन्म भी उसके अवैध संबंधों से हुआ है. इस जघन्य घटना के लिए ट्रायल कोर्ट और कर्नाटक हाई कोर्ट दोनों ने उसे फांसी की सजा दी थी.

सुप्रीम कोर्ट ने उसकी सजा को उम्रकैद में बदलते हुए कहा, "जब हम निचली अदालतों द्वारा दोष सिद्ध करने के निष्कर्ष को स्वीकार करते हैं, तब हम यह भी पाते हैं कि हाई कोर्ट ने उपलब्ध जानकारी के बावजूद दोषी की सामाजिक व मानसिक स्थिति को पर्याप्त रूप से नहीं समझा."

कोर्ट के अनुसार, थिप्पैया की जेल रिपोर्ट बताती है कि उसकी जेल में आचरण अच्छा रहा है और उसने साक्षरता अभियान में हिस्सा लेकर पढ़ना-लिखना सीखा है. कोर्ट ने बताया, "जेल में रहते हुए मानसिक स्वास्थ्य उसकी सबसे बड़ी चुनौती बनी रही… परिस्थितियों की कुल स्थिति को देखते हुए हमें लगता है कि मौत की सजा उपयुक्त नहीं है."

थिप्पैया ने जेल में दो बार आत्महत्या की कोशिश की पहली बार जब उसे परिवार के सभी सदस्यों की मृत्यु की जानकारी मिली और दूसरी बार जब उसे फांसी की सजा सुनाई गई. उसकी पृष्ठभूमि भी समस्याओं से भरी रही माता-पिता का प्रेम न मिलना, भाई की मौत, और पहली पत्नी से तलाक ने उसे मानसिक रूप से तोड़ दिया.

कोर्ट ने कहा, "हम मानते हैं कि उसे अपने अपराधों के लिए जीवन भर जेल में रहकर पश्चाताप करना चाहिए. इसलिए उसकी फांसी की सजा को उम्रकैद में बदला जाता है बिना किसी रिहाई के."

मासूम बच्ची से दुष्कर्म और हत्या

दूसरा मामला उत्तराखंड के देहरादून का है, जहां जय प्रकाश नाम के दोषी ने जुलाई 2018 में अपनी पड़ोस की एक नाबालिग बच्ची को बहला-फुसलाकर अपने झोपड़े में बुलाया, उसके साथ दुष्कर्म किया और फिर सबूत छुपाने के लिए गला दबाकर हत्या कर दी. 

ट्रायल कोर्ट (2019) और हाई कोर्ट (जनवरी 2020) ने उसे मृत्युदंड दिया था. लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने पाया कि दोनों अदालतों ने केवल अपराध की क्रूरता पर ध्यान दिया और किसी अन्य पहलु को नहीं परखा. जस्टिस करोल ने फैसले में कहा, "निचली अदालतों ने केवल अपराध की नृशंसता पर टिप्पणी करते हुए मौत की सजा सुनाई. कोई अन्य परिस्थिति इस निर्णय में नहीं जोड़ी गई. ऐसा दृष्टिकोण हमारे अनुसार न्यायोचित नहीं है."

कोर्ट ने स्पष्ट किया कि वह अपराध की गंभीरता को कम नहीं आंक रही है. उसने लिखा, "एक मासूम बच्ची को बहलाकर मिठाई दिलाने के बहाने झोपड़ी में लाया गया और फिर उसके साथ बलात्कार कर उसकी हत्या कर दी गई. बच्ची की कोई भी मदद नहीं कर पाया क्योंकि वह पूरी तरह असहाय थी." जय प्रकाश को IPC की धाराओं 302 (हत्या), 376 (बलात्कार), 377 (अप्राकृतिक अपराध), 201 (सबूत नष्ट करना) और POCSO एक्ट की धारा 6 के तहत सजा दी गई थी.

कोर्ट ने उसके सामाजिक और मनोवैज्ञानिक स्थिति की समीक्षा की. जिला प्रोबेशन अधिकारी, अयोध्या की रिपोर्ट में बताया गया कि उसके परिवार की हालत बेहद दयनीय थी. वह बचपन से ही मजदूरी कर रहा था और स्कूल नहीं जा सका. मनोवैज्ञानिक रिपोर्ट के अनुसार, वह किसी मानसिक रोग से ग्रसित नहीं था और जेल में उसका व्यवहार संतोषजनक रहा.

कोर्ट ने कहा, "इन सभी परिस्थियों और दुर्लभतम दुर्लभ की कसौटी को ध्यान में रखते हुए, हम मृत्युदंड के स्थान पर बिना रिहाई के आजीवन कारावास देना उचित समझते हैं."

मृत्युदंड से पहले मनोवैज्ञानिक और सामाजिक मूल्यांकन जरूरी

इस ऐतिहासिक निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने 2023 के Manoj vs State of MP केस का हवाला देते हुए कहा कि किसी को फांसी पर भेजने से पहले उसकी जीवन परिस्थितियां, मानसिक स्थिति और सामाजिक पृष्ठभूमि पर गहराई से विचार करना अनिवार्य है. दोनों मामलों में हाई कोर्ट इस पहलु को नजरअंदाज कर गया था, इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने हस्तक्षेप किया और सजा में संशोधन किया.

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17 July 2025, 08:42 AM IST

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