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एक ऐसा शायर जिसके कलम की धार से काँपते थे पाकिस्तानी तानाशाह

Ahmad Faraz Biography: जब से पाकिस्तान बना है वहाँ राजनीतिक तौर पर स्थिरता कम ही देखने को मिली है. जिसका खमयाज़ा वहाँ की अवाम को भुगतना पड़ता है. एक शायर समाज में आयने का काम करता है. आज हम आपको एक ऐसे ही शायर के बारे में बताने जा रहे हैं, जिसने पाकिस्तानी अवाम के जज़्बात अपने कलम से काग़ज़ पर उतारे.

Tahir Kamran
Edited By: Tahir Kamran
कलम की काट तो तलवार से भी बेहतर है
मगर शुमार ये हथियार में नहीं होता
कलम एक ऐसी चीज है जिसे तलवार से भी ज्यादा धारदार माना जाता है. तलवार डर का माहौल पैदा करती है जबकि कलम खामोशी और दलीलों के साथ लोगों को मुतमइन करती है. ये सब आपको इसलिए बताया जा रहा है क्योंकि आज हम जिस क़लमकार के बारे में आपको बताएँगे, उसकी कलम कुछ इसी तरह की थी. उन्होंने अपनी कलम का रुख़ महबूबा की ज़ुल्फ़ों और लबो-रुख्सार की तरफ़ से मोड़कर तलवार, बम और गोला बारूद के ख़िलाफ़ खड़ा कर दिया था. शायर का नाम है अहमद फ़राज़, हाँ, वही अहमद फ़राज़ जिन्होंने अपनी छोटी सी कलम से पाकिस्तानी हुकूमतों के तख्ते हिला दिए थे. 

अहमद फ़राज़ का पूरा नाम सैय्यद अहमद शाह था. बाद में उन्होंने बदलकर अहमद फ़राज़ कर लिया था. 12 जनवरी 1931 को पैदा हुए थे. उनके पिता भी एक मशहूर शायर थे. जिसकी वजह से शायद उन्हें बचपन से ही शायरी का शौक़ लग गया था. फ़राज़ की शुरुआती शायरी इश्क़ो-आशिकी, शराब और शबाब के इर्द गिर्द घूमती नज़र आती है. उन्होंने महबूब के रिश्तों के एहसास को ऐसी बारीकी से शायरी में ढाला है जो उनसे पहले बहुत ही कम देखने को मिलता है. वो लिखते हैं कि:-

रंजिश ही सही, दिल ही दुखाने के लिए आ 
आ फिर से मुझे छोड़ के जाने के लिए आ
 
किस किस को बताएँगे जुदाई का सबब हम 
तू मुझ से ख़फ़ा है तो ज़माने के लिए आ 
 
अबके हम बिछड़े तो शायद कभी ख़्वाबों में मिलें 
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें 
 
ज़िंदगी से यही गिला है मुझे
तू बहुत देर से मिला है मुझे
तू मोहब्बत से कोई चाल तो चल
हार जाने का हौसला है मुझे
 
हम को अच्छा नहीं लगता कोई हमनाम तिरा 
कोई तुझ सा हो तो फिर नाम भी तुझ सा रक्खे 
 
अब तिरे ज़िक्र पे हम बात बदल देते हैं 
कितनी रग़बत थी तिरे नाम से पहले पहले 
 
तमाम उम्र कहाँ कोई साथ देता है 
ये जानता हूँ मगर थोड़ी दूर साथ चलो 

इसके अलावा अहमद फ़राज़ की एक ग़ज़ल इतनी मशहूर है कि उसका एक ना एक शेर हर कोई ज़रूर जानता होगा. वो लिखते हैं कि

सुना है लोग उसे आँख भर के देखते हैं 
सो उस के शहर में कुछ दिन ठहर के देखते हैं 
 
सुना है बोले तो बातों से फूल झड़ते हैं 
ये बात है तो चलो बात कर के देखते हैं 
 
सुना है दिन को उसे तितलियाँ सताती हैं 
सुना है रात को जुगनू ठहर के देखते हैं
अब बात करते हैं फ़राज़ साहब के दूसरे रुख़ की, जब उन्होंने अपने कलम को हथियार में तब्दील कर लिया था. उसकी एक वजह थी कि अहमद फ़राज़ ने पाकिस्तान को अपनी आँखों से बनते हुए देखा था और पाकिस्तानी क़ौम को जिस तरह के ख़्वाब दिखाए गए थे वो बिल्कुल वैसे थे जैसे जन्नत की बात हो रही है. लेकिन फ़राज़ साहब या वहाँ की क़ौम को अपने लीडरों से जो उम्मीदें थीं वो सब काफूर साबित हुईं. देश के हालात ख़राब होता देख एक सच्चा क़लमकार अपने क़लम को वैसे रोक भी नहीं सकता. ऐसा ही कुछ फ़राज़ साहब ने भी किया.

साल 1958 पाकिस्तान के लिए बेहद दर्द भरा साबित हुआ. ये वो साल था जब जनरल अय्यूब खान ने पहली बार मार्शल लॉ लगाया था. उसके बाद से अब तक पाकिस्तान में कई बार तख्तापलट हो चुका है. मुल्क के बिगड़ते हालात को देख अहमद फ़राज़ ने जो लिखा वो तारीख़ में अमिट हो गया. उन्होंने फ़ौज और ब्यूरोक्रेसी पर खूब हमले किए. फ़राज़ साहब लिखते हैं-

वो एक शख़्स कि सूरज के रूप में आया
चुराके ले गया शम्में फ़राज़ हर घर की
 
तमाम शहर है मक़तल उसी के हाथों से
तमाम शहर उसी की दुआएँ देता है
 
ऐसी तारीकियाँ आँखों में बसी हैं कि फ़राज़
रात तो रात है हम दिन को जलाते हैं चराग
 
उन्होंने ना सिर्फ़ अय्यूब खान बल्कि जनरल जियाउल हक़ के ख़िलाफ़ भी जमकर लिखा. हालात ऐसे पैदा हो गए थे कि जनरल जियाउल हक़ के दौर में उन्हें तब गिरफ्तार कर लिया गया था जब वो मुशायरे में कलाम पढ़ रहे थे. यहाँ तक कि उन्हें जेल में डाला गया था. जिसके बाद फ़राज़ शायद मायूस हो गए थे. उस वक्त उस शायर पर क्या गुजरी होगी, जिसने अपनी ज़िंदगी में पाकिस्तान को बनते देखा और फिर हुकमरानों के ज़रिए उसकी इज़्ज़त भी लुटती देखी. नौबत यहाँ तक आ गई कि इस शायर को वो मुल्क छोड़ना पड़ा जिसकी साख बचाने के लिए उसने अपने कलम की रोशनाई कभी सूखने नहीं दी. शायद इसीलिए फ़राज़ साहब लिखते हैं-
 
ऐसा है, कि सब ख़्वाब मुसलसल नहीं होते 
जो आज तो होते हैं मगर कल नहीं होते 

हालाँकि परवेज़ मुशर्रफ के दौर में उन्हें पाकिस्तान के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान ‘हिलाल-ए-इम्तियाज’ से नवाज़ा गया था लेकिन दो बरस बाद ही उन्होंने यह अवॉर्ड सरकार के कदमों में वापस दे मारा था. बताया जाता है कि फ़राज़ साहब ने सरकार की पॉलिसियों से नाराज़ होकर यह अवॉर्ड वापस किया था.  फ़राज़ अम्न चाहते थे ना सिर्फ़ पाकिस्तान बल्कि दुनिया भर में. वो लिखते हैं कि-

अब ज़मीं पर कोई गौतम न मोहम्मद न मसीह 
आसमानों से नए लोग उतारे जाएँ 

फ़राज़ साहब के आख़िरी वक़्त की बात करें तो उनकी ख्वाहिश थी कि वो अपने आख़िरी दिन पाकिस्तान में ही गुज़ारें. लेकिन अमेरिका में रहते हुए उनके घुटने में कुछ ज़्यादा ही चोट लग गई थी. जिसके बाद उन्हें पाकिस्तान लाया गया और वो 24 दिन इस्लामाबाद के एक अस्पताल में रहे. उनके चंद आख़िरी दिन इतने मन्हूस थे कि वो ज़बान से कुछ बोल भी ना सकते थे. जबकि बिस्तर पर लेटे इस शख़्स की कलम तक भी चीख-चीखकर हुक्मरानों को ललकारती थी. फ़राज़ साहब 2008 में 25 अगस्त के दिन इस दुनिया को अलविदा कह गए. वो कहते हैं कि-

मिरा क़लम तो अमानत है मेरे लोगों की 
मिरा क़लम तो अदालत मिरे ज़मीर की है 
 
कभी 'फ़राज़' से आ कर मिलो जो वक़्त मिले 
ये शख़्स ख़ूब है अशआर के अलावा भी 

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12 January 2024, 01:10 PM IST

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