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कर्म, अकर्म और विकर्म क्या हैं?

पंडित संस्कृत का शब्द है। जिसका शाब्दिक अर्थ है ऐसा व्यक्ति जिसके अंदर पंडा निवास करता हो। पंडा क्या है। सद, असद, विवेक, बुद्धि पंडा है। क्या सत है क्या असत है इसका विवेक करने की बुद्धि हो और जो यह जान सके वह पंडा है। पंडित वही है जिसको पता हो कि सत क्या है और असत क्या है।

पंडित संस्कृत का शब्द है। जिसका शाब्दिक अर्थ है ऐसा व्यक्ति जिसके अंदर पंडा निवास करता हो। पंडा क्या है। सद, असद, विवेक, बुद्धि पंडा है। क्या सत है क्या असत है इसका विवेक करने की बुद्धि हो और जो यह जान सके वह पंडा है। पंडित वही है जिसको पता हो कि सत क्या है और असत क्या है। इन दोनों का ज्ञान हो वही पंडा या पंडित कहला सकता है। जो इस संसार को सत्य समझ रहा है। इस संसार में जो प्रतिबिंब उसके पास आ रहे हैं, जो यहां से संसार के लोगों के द्वारा उसके प्रति जो व्यवहार है वो उससे प्रभावित हो रहा है। कोई व्यक्ति कड़वे वचन कह रहा है उससे वो दुखी हो जा रहा है, कोई व्यक्ति प्रशंसा कर दे रहा है उससे वह खुश हो जा रहा है तो ऐसा व्यक्ति पंडित नहीं कहा जा सकता।

ऐसा व्यक्ति जिसको किसी ने कुछ गिफ्ट कर दिया और वह खुश हो गया, नहीं किया तो दुखी हो गया वह व्यक्ति पंडित नहीं है। जिसने कोई भी काम इसलिए नहीं किया है, कोई भी काम इसलिए प्रारंभ नहीं किया है कि उसको कुछ मिल जाए। किसी प्राप्ति के लिए वो काम नहीं कर रहा है। जिसने या तो अपने समस्त कर्मों को प्रभु को समर्पति कर दिया है या वो कर्म इसलिए कर रहा है कि यह उसका उत्तरदायित्व है। इस तरह से यदि व्यक्ति कार्य कर रहा है तो ये मान लिया जाएगा कि उसकी ज्ञानाग्नि प्रज्जवलित हो गई है उसे ज्ञान हो गया इस संसार की मिथ्यात्व का, इस जगत के मिथ्यात्व का, इस जगत के रिलेटिव होने का कि ये संसार रिलेटिव संसार है।

यह सापेक्षिक जगत है। इस जगत के जितने भी कर्म हैं वो सब सापेक्ष कर्म हैं, रिलेटिव कर्म हैं और किसी रिलेटिव कर्म से आप निरपेक्ष तक नहीं पहुंच सकते। निरपेक्ष तक पहुंचने के लिए निरपेक्ष ही बनना पड़ेगा। निरपेक्ष कर्म ही करने पड़ेंगे और कोई भी कर्म निरपेक्ष नहीं है क्योंकि यह संसार ही रिलेटिव है। आप अगर सीमित कर्म करोगे तो उसका सीमित परिणाम ही आएगा वो असीमित नहीं हो सकता। रिलेटिव कर्म इमपरफेक्ट है। कर्म करके आप निरपेक्ष या परमात्मा तक नहीं पहुंच सकते। जो परमात्मा है वो पूर्ण है, वह संपूर्ण है, वह समग्र व्याप्त है, आपका कर्म अपूर्ण है। कर्म आपको परमात्मा तक नहीं पहुंचा सकता। इसलिए आप निष्काम हो जाओ। कामना ही कर्म को कर्म बनाती है। जो निष्काम कर्म है वह उन बीजों के समान है जो भून दिए गए हैं जिनमें आगे वृक्ष को उत्पन्न करने की क्षमता नहीं है। उसी तरह से निष्काम कर्म कोई भी प्रभाव उत्पन्न नहीं करते।

जब आगे वह प्रभाव ही उत्पन्न हीं करेंगे तो धीरे-धीरे आपका अज्ञान नष्ट हो जाएगा। भगवान कृष्ण कहते हैं कि जो ईश्वर साक्षात्कार है जो ब्रह्म साक्षात्कार है जो आत्म ज्ञान है वह किसी कर्म का फल नहीं है। क्योंकि कर्म सीमित है और कर्मों का जो फल होगा वह भी सीमित होगा। सीमित कर्म का सीमित ही फल होगा। अगर ईश्वर प्राप्ति को कर्मों को फल मान लिया जाए तो ईश्वर प्राप्ति भी अनित्य हो जाएगी। जैसे की कर्मों की शक्ति खत्म होगी फल भी खत्म हो जाएगा। जैसे आप एक पेड़ लगाते हो उसपर काफी मेहनत करते हो उसमें खाद पानी डालते हो वह फल देता है लेकिन वह फल सीमित समय के लिए होता है। अगर आप उसे खा लोगे तो वह खत्म हो जाएगा और नहीं भी खाओगे तो वह सड़ कर खत्म हो जाएगा। कर्मों के जितने भी फल हैं वो सभी सीमित हैं।

इसलिए प्रभु की प्राप्ति कर्मों का फल नहीं है। प्रभु की प्राप्ति केवल आपकी चेतना का उद्बोधन है। जैसे आप एक शीशे के सामने खड़े हो और उस शीशे में आपकी परछाई नहीं दिख रही हो। शीशे में परछाई बनाने की क्षमता है। शीशे और आपके बीच शीशे के ऊपर धूल की एक परत जम गई है। जैसे ही आप उस धूल की परत को साफ करते हो आपको अपना चेहरा दिखने लगता है। उसी तरह आपकी आत्मा में ही परमात्मा है जो अज्ञान और अविद्या के कारण आपके जो कर्म हैं, उन कर्मों के परिणाम के कारण वह चेतन तत्व ढंक गया। जैसे ही आप निष्काम कर्म चालू करते हो और पुराने कर्म क्षीण होते हैं वह चेतन कर्म प्रकाशित हो जाता है। उसी दर्पण की तरह जिसके ऊपर मल जम गया था। आपको उस आत्म तत्व का साक्षात्कार हो जाता है और आप प्रभु के दर्शन कर लेते हो।

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14 October 2022, 01:47 PM IST

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