ना संगीत की तालीम, ना गुरु… फिर भी कैसे बनें सुरों का सम्राट? पढ़िए किशोर कुमार की सफलता की दास्तां
बचपन में गायक बनने का कोई सपना नहीं था. ना कोई संगीत की शिक्षा ली, ना किसी उस्ताद के सामने बैठकर रियाज किया. फिर भी जब किशोर कुमार गाते थे, तो सुर खुद-ब-खुद उनके कदमों में बिछ जाते थे. एक ऐसा फनकार, जो रफी और मुकेश जैसे महारथियों के दौर में आया, लेकिन अपनी अलग आवाज, अंदाज और अदाओं से सुरों की दुनिया पर छा गया.

हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में जब मोहम्मद रफी, तलत महमूद, मुकेश और मन्ना डे जैसे दिग्गज गायकों का बोलबाला था, उस दौर में किशोर कुमार जैसे गायक का उभरना आसान नहीं था. लेकिन उन्होंने सिर्फ गायक नहीं, एक संपूर्ण कलाकार के रूप में अपनी पहचान बनाई, जिसकी गायकी ने पारंपरिक शास्त्रीयता की जकड़न को तोड़ा, और फिर भी उसी की आत्मा को छू लिया.
किशोर कुमार ने अपने संघर्ष, अनूठी आवाज और आत्माभिमान के दम पर उस दौर में अपना मुकाम हासिल किया, जहां हर तरफ पहले से स्थापित नामों की चमक थी. रफी या मुकेश की शैली से हटकर उन्होंने जो गायकी दी, वह न केवल लोकप्रिय हुई, बल्कि आम जनता की धड़कनों में भी बस गई.
सरलता में छुपी थी किशोर की जटिलता
किशोर कुमार की गायकी में जो सबसे बड़ी विशेषता थी, वह थी 'सरलता में जटिलता का अनुभव'. उनके गानों को गाना आसान समझा जाता है, लेकिन जब कोई गायक अभ्यास करता है, तो पता चलता है कि किशोर की टोन, लय और अभिव्यक्ति को दुहराना कितना कठिन है. यही कारण है कि वे भीड़ में भी अलग सुने जाते हैं.
शास्त्रीयता से आजादी
किशोर कुमार ने कभी भी शास्त्रीयता को पूरी तरह त्यागा नहीं, बल्कि उसे आमजन तक लाया. वे शास्त्रीय संगीत की अहमियत को जानते थे, लेकिन उसकी जकड़न से दूर रहकर भी संगीत को जीवंत बना दिया. उनका मानना था कि गाना आए या न आए, दिल से गाना चाहिए. जैसा कि उनके गाने 'ठंडे ठंडे पानी से नहाना
चाहिए...' की लाइन कहती है.
सुरों की जंग में भी रचनात्मक आजादी
फिल्म 'पड़ोसन' का मशहूर गाना 'एक चतुर नार' किशोर कुमार की आजाद ख्याली और रचनात्मक स्वतंत्रता का जीवंत उदाहरण है. इस गीत में मन्ना डे शास्त्रीयता का प्रतिनिधित्व करते हैं, जबकि किशोर कुमार हर बंदिश को तोड़ते हैं और नई लय गढ़ते हैं. उनके संवाद 'ओ टेढ़े, सीधे हो जा रे'...संगीत में मौलिकता की मांग के प्रतीक हैं.
दिग्गजों के बीच अपनी अलग छाप
आपको बता दें कि जब किशोर कुमार माया नगरी मुंबई पहुंचे तो उस वक्त संगीत जगत पर सहगल से प्रेरित गायक छाए हुए थे. लेकिन किशोर ने न तो उनकी नकल की और न ही उनकी राह पकड़ी. उन्होंने खुद की एक शैली विकसित की, जो हास्य, रोमांस, दर्द और मस्ती सबको समेटती थी. 'दुखी मन मेरे...' जैसे गानों ने उन्हें गम्भीर गायक की पहचान दिलाई, जबकि 'रूप तेरा मस्ताना...' और 'जिंदगी एक सफर है सुहाना...' ने उन्हें दिलों का राजा बना दिया.
हास्य भूमिकाओं से गायक बनने तक
पचास और साठ के दशक में किशोर कुमार को एक हास्य अभिनेता के रूप में देखा जाता था. लेकिन उनके गानों में जो गहराई थी, उसने उन्हें पार्श्वगायकों की कतार में सबसे आगे लाकर खड़ा कर दिया. 'चलती का नाम गाड़ी' जैसी फिल्मों ने उनके निर्देशन को भी दर्शाया, लेकिन अंततः गायकी ही उनका सबसे मजबूत पक्ष बनकर उभरा.
भाइयों का सहारा, लेकिन मेहनत खुद की
किशोर कुमार को अपने भाइयों, अशोक कुमार और अनुप कुमार की वजह से इंडस्ट्री में एंट्री मिली, लेकिन उन्होंने जो स्थान बनाया, वो पूरी तरह उनकी मेहनत और प्रतिभा का फल था. भाइयों की अपेक्षा थी कि वह अभिनेता बनें, लेकिन किशोर को असली संतुष्टि संगीत में मिली.
लोकप्रियता रफी-मुकेश के बाद नहीं
ऐसा कहना गलत होगा कि किशोर कुमार को रफी और मुकेश के निधन के बाद ही लोकप्रियता मिली. 70 के दशक में ही वे देव आनंद, राजेश खन्ना, अमिताभ बच्चन, विनोद खन्ना जैसे बड़े सितारों की आवाज बन चुके थे. उन्होंने रफी के साथ भी कई डुएट्स गाए, जिनमें 'हमको तुमसे हो गया है प्यार क्या करें...' और 'बने चाहे दुश्मन जमाना हमारा...' जैसे गाने शामिल हैं.
जब किशोर ने नहीं किया समझौता
आपातकाल के समय किशोर कुमार ने संजय गांधी की सभा में गाने से मना कर दिया. परिणामस्वरूप उनके गाने आकाशवाणी से प्रतिबंधित हो गए. लेकिन उन्होंने अपने स्वाभिमान से समझौता नहीं किया. इसी तरह 1981 में उन्होंने फिल्म 'ममता की छांव' के लिए अमिताभ बच्चन से एक गेस्ट रोल मांगा, लेकिन जब अमिताभ ने मना कर दिया, तो किशोर आहत हो गए. इसके बाद 1984 की फिल्म 'शराबी' के दौरान दोनों के बीच टकराव हुआ और किशोर ने उनके लिए गाना गाना बंद कर दिया. हालांकि अंततः दोनों में सुलह हुई और किशोर ने 'आया आया तूफान...' जैसा गीत गाया, जो उनकी मृत्यु के बाद 1989 में रिलीज हुआ.


