बिहार की विधायकी या अपराध की वसीयत? ADR रिपोर्ट में बेनकाब हुआ लोकतंत्र पर बाहुबलियों का कब्ज़ा
बिहार की राजनीति में बाहुबली नेताओं की पकड़ दिनों-दिन मजबूत होती जा रही है। ADR रिपोर्ट ने खुलासा किया है कि कई विधायक गंभीर आपराधिक मामलों में लिप्त हैं। वोट की ताक़त और बंदूक की धमक अब सत्ता का नया समीकरण बन गए हैं, जिससे लोकतंत्र की जड़ें हिल रही हैं।

National New: बिहार की सियासत में बाहुबली नेताओं की मौजूदगी कोई नई बात नहीं, लेकिन अब यह व्यवस्था का हिस्सा बन चुकी है। ADR की रिपोर्ट के मुताबिक कई विधायक हत्या, फिरौती और अपहरण जैसे संगीन मामलों में आरोपी हैं। इनका अपराध राजनीतिक ताक़त में बदल चुका है। विपक्ष इस चुप्पी को सत्ता की मिलीभगत बता रहा है। अब राजनीतिक दल जीत के लिए ऐसे चेहरों पर दांव लगा रहे हैं जिनकी छवि से ज़्यादा उनके ‘प्रभाव’ मायने रखते हैं।
आंकड़ों ने खोला कच्चा चिट्ठा
2023 में जारी ADR रिपोर्ट के अनुसार, 243 सदस्यीय विधानसभा में से 102 विधायकों पर आपराधिक मामले हैं। इनमें से 66 पर गंभीर धाराएं हैं। चार विधायकों पर हत्या, ग्यारह पर हत्या की कोशिश और छह पर महिलाओं से जुड़े अपराधों के आरोप हैं। ये आंकड़े बताते हैं कि अब अपराध की पृष्ठभूमि चुनावी अड़चन नहीं, ताक़त बन गई है।
कैसे बनता है सत्ता का समीकरण
विशेषज्ञ कहते हैं कि बाहुबली उम्मीदवार जातीय गणित और धनबल के साथ आते हैं। ये सिर्फ चुनाव नहीं जीतते, बल्कि अपने इलाकों में अफसरशाही को भी प्रभावित करते हैं। यही वजह है कि पार्टियां उन्हें अनदेखा नहीं कर सकतीं। बाहुबली नेता आज भी ग्रामीण इलाकों में ‘समस्या सुलझाने वाला’ माना जाता है, चाहे वह कानूनी हो या गैर-कानूनी। इनके पास संसाधन होते हैं, और अक्सर पुलिस-प्रशासन भी इन्हें नज़रअंदाज़ करता है। कई बार जनता खुद इनकी शरण में जाती है क्योंकि उन्हें लगता है कि सरकारी सिस्टम से ज़्यादा तेज़ी से काम यहीं होता है।
कहां तक सक्षम है आयोग?
चुनाव आयोग अपराधियों को चुनाव लड़ने से नहीं रोक सकता जब तक कोर्ट उन्हें दोषी साबित न कर दे। सुप्रीम कोर्ट कई बार चिंता जता चुका है लेकिन ज़मीनी बदलाव के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति ज़रूरी है। अगर दल चाहें तो ऐसे चेहरों को टिकट ही न दें, लेकिन असल इरादा यही नहीं होता। क्योंकि ऐसे उम्मीदवार पैसा, बाहुबल और ‘गॉडफादर नेटवर्क’ लेकर आते हैं, जो चुनाव जीतने की गारंटी माने जाते हैं। इसलिए पार्टियों को सज़ा मिलने तक इंतज़ार करना ज्यादा आसान लगता है, बजाय नैतिक फैसला लेने के।
जनता भी है ज़िम्मेदार
बिहार में कई इलाकों में जनता बाहुबलियों को ही ‘काम कराने वाला नेता’ मानती है। प्रशासन जहां असफल होता है, वहां ये नेता अपनी समानांतर सत्ता बनाते हैं। जब तक जनता ऐसे लोगों को वोट देती रहेगी, पार्टियां उन्हें टिकट देती रहेंगी। कई बार तो खुद जनता ऐसे नेताओं को ज़बरदस्त जनसमर्थन देती है, क्योंकि उन्हें डर के साथ-साथ सुविधा भी मिलती है। लोकतंत्र में जनता सबसे बड़ी ताक़त है, लेकिन जब डर और दबदबा ही विकल्प बन जाएं, तो विकल्प कमज़ोर हो जाते हैं।
विपक्ष ने साधा निशाना
आरजेडी, कांग्रेस समेत विपक्षी दलों ने नीतीश सरकार पर अपराधियों को संरक्षण देने का आरोप लगाया है। उनका दावा है कि सत्ताधारी दल सत्ता बचाने के लिए नैतिकता को त्याग चुके हैं। हालांकि जेडीयू-बीजेपी इसे राजनीति प्रेरित बयानबाज़ी बताते हैं। लेकिन ADR के आंकड़े इन दावों को आधार भी देते हैं। विपक्ष बार-बार कह रहा है कि सरकार बाहुबलियों के सहारे ही सत्ता में टिकी है। हालांकि सत्ता पक्ष का तर्क है कि सभी मामलों में कोर्ट से दोष सिद्ध होना ज़रूरी है, पर जनता इससे संतुष्ट नहीं दिखती।
क्या बदलाव की कोई उम्मीद है?
बिहार में युवाओं और नागरिक संगठनों ने अब साफ़-सुथरी राजनीति की माँग को बुलंद किया है। सोशल मीडिया पर ‘No Criminals in Politics’ जैसी मुहिमें चल रही हैं। पर असली बदलाव तब होगा जब मतदान करते समय लोग जाति या डर नहीं, चरित्र पर वोट देंगे। लोकतांत्रिक बदलाव की शुरुआत समाज के सोच बदलने से होती है, और बिहार में ये हलचल शुरू हो चुकी है। सवाल है कि क्या ये जागरूकता वोटिंग बूट तक पहुंचेगी या सिर्फ ऑनलाइन मुहिम बनकर रह जाएगी?