'1857 से उठी स्वतंत्रता की लहर, किसी एक संस्था को नहीं दिया जा सकता आजादी का श्रेय', मोहन भागवत ने क्यों कही ये बात
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत ने स्वतंत्रता संग्राम को अनेक व्यक्तियों और समूहों की साझा उपलब्धि बताया. उन्होंने कहा कि आरएसएस की भूमिका समझना जरूरी है, जो निस्वार्थ सेवा और समर्पित स्वयंसेवकों के बल पर संचालित होता है.

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) प्रमुख मोहन भागवत ने शुक्रवार रात नागपुर में एक पुस्तक विमोचन समारोह में कहा कि भारत की आजादी किसी एक व्यक्ति या संस्था की उपलब्धि नहीं थी, बल्कि यह देशभर में फैले अनेक लोगों और संगठनों के सामूहिक प्रयासों का नतीजा है. उन्होंने इस बात पर ज़ोर दिया कि स्वतंत्रता संग्राम का सूत्रपात 1857 की क्रांति से हुआ, जिसने राष्ट्रीय चेतना को जन्म दिया और अंततः आजादी का मार्ग प्रशस्त किया.
1857 के बाद हर कोने में उठी स्वतंत्रता की लहर
भागवत ने कहा कि 1857 के विद्रोह के बाद स्वतंत्रता की ज्वाला पूरे देश में फैल गई. यह संघर्ष एक लंबे समय तक चला और इसमें हर क्षेत्र, जाति, वर्ग और धर्म के लोगों ने हिस्सा लिया. उन्होंने इस धारणा को नकारा कि किसी एक समूह या संस्था को स्वतंत्रता संग्राम का संपूर्ण श्रेय दिया जा सकता है.
आरएसएस की भूमिका पर विचार
भागवत ने बिना नाम लिए आरएसएस पर लगे पुराने आरोपों का भी जवाब दिया. आलोचक अक्सर यह दावा करते रहे हैं कि संघ ने स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भूमिका नहीं निभाई. इस पर उन्होंने स्पष्ट किया कि संघ का फोकस उस समय सामाजिक एकता पर था, क्योंकि समाज के भीतर विभाजन ने देश को कमजोर किया था. यही कारण है कि संघ ने प्रत्यक्ष आंदोलनों से हटकर समाज निर्माण पर ज़ोर दिया.
संस्थापक नेताओं का योगदान
भागवत ने के.बी. हेगड़ेवार और अन्य संस्थापक नेताओं का ज़िक्र करते हुए बताया कि वे लोकमान्य तिलक से प्रभावित थे और उन्होंने ब्रिटिश शासन के विरुद्ध गतिविधियों में भाग लिया था. उन्होंने यह भी बताया कि हेगड़ेवार को ब्रिटिश-विरोधी भाषण और नमक सत्याग्रह में भाग लेने के लिए जेल भेजा गया था.
संगठन में सर्वोच्चता का मतलब सेवा
भागवत ने कहा कि आरएसएस में सर्वोच्च पद "सामान्य स्वयंसेवक" का है. संगठन व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा नहीं, बल्कि सामूहिक प्रयासों से संचालित होता है. उन्होंने बताया कि आरएसएस के स्वयंसेवक बिना किसी स्वार्थ के रोज शाखाओं में जाते हैं, समाज सेवा करते हैं और लोगों की मदद करते हैं. यही संघ की असली ताकत है.
सेवा ही सच्चा धर्म
आरएसएस प्रमुख ने युवाओं को निस्वार्थ सेवा के लिए प्रेरित करते हुए कहा कि वास्तविक संतोष दूसरों की सहायता करने से प्राप्त होता है. उन्होंने 1971 के बांग्लादेश युद्ध के दौरान आरएसएस के स्वयंसेवकों द्वारा सैनिकों को की गई आपूर्ति की याद दिलाई, जो भले ही व्यापक रूप से मान्यता प्राप्त न हो, लेकिन संघ के भीतर गहराई से सराही जाती है.


