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Nepal Protest News : सोशल मीडिया बैन या अमेरिका और चीन की साजिश, नेपाल में उथल-पुथल के पीछे आखिर किसका हाथ ?

नेपाल में सोशल मीडिया बैन के खिलाफ शुरू हुआ आंदोलन जल्द ही भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और वंशवाद के विरोध में बदल गया. युवाओं के नेतृत्व में उभरे इस विद्रोह ने प्रधानमंत्री ओली और राष्ट्रपति को इस्तीफा देने पर मजबूर कर दिया. हालात इस कदर बिगड़े कि नेताओं के घर जलाए गए. विशेषज्ञ मानते हैं कि इसके पीछे अमेरिका-चीन के बीच चल रही रणनीतिक प्रतिस्पर्धा भी एक बड़ा कारण हो सकता है.

Utsav Singh
Edited By: Utsav Singh

The Political Crisis in Nepal : पिछले तीन वर्षों में भारत के पड़ोसी देशों में जिस तरह से सरकारें गिरती गईं, उसने दक्षिण एशिया की राजनीति में एक नई अस्थिरता को जन्म दिया है. श्रीलंका, पाकिस्तान और बांग्लादेश के बाद अब नेपाल भी उसी राह पर चलता दिखाई दे रहा है. हालिया घटनाओं में नेपाल में उभरे जनविरोध, नेताओं का इस्तीफा और सरकारी इमारतों में आगजनी के दृश्य देखकर सवाल उठने लगे हैं क्या ये केवल घरेलू असंतोष का परिणाम है या इसके पीछे वैश्विक ताकतों की गहरी साजिश छिपी है? आइए जानते है इस खबर को विस्तार से... 

शुरुआत सोशल मीडिया बैन से, लेकिन अंत...

आपको बता दें कि नेपाल में जनाक्रोश की शुरुआत सरकार के एक विवादास्पद निर्णय से हुई—सोशल मीडिया प्लेटफार्मों पर प्रतिबंध. इस फैसले के बाद सड़कों पर उतरे युवा और छात्र जल्द ही भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और वंशवादी राजनीति के खिलाफ आवाज़ उठाने लगे. आंदोलन इतना व्यापक हो गया कि प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली और राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल को इस्तीफा देना पड़ा. खबरों के अनुसार, ओली जल्द ही देश छोड़कर दुबई भाग सकते हैं.

काठमांडू मे लग रहे केपी चोर, देश छोड़ के नारे...
सरकार द्वारा बैन हटाए जाने के बावजूद प्रदर्शन रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. राजधानी काठमांडू में "केपी चोर, देश छोड़" जैसे नारों के साथ प्रदर्शनकारियों ने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री और मंत्रियों के निजी घरों पर हमला कर दिया. यहां तक कि सत्ताधारी पार्टी के एक नेता द्वारा स्वामित्व वाले प्रतिष्ठित हिल्टन होटल को भी आग के हवाले कर दिया गया. यह सिलसिला कोई नया नहीं है. 2022 में श्रीलंका और 2024 में बांग्लादेश में भी ऐसे ही नज़ारे देखे गए थे जहाँ जनता ने नेताओं के घरों में घुसकर तोड़फोड़ की, पूल में नहाए और राजनीतिक व्यवस्था पर सीधा हमला बोला.

बाहरी हाथ की आशंका, अमेरिका बनाम चीन की नई जंग?
इन सभी घटनाओं में एक बात समान रही जनता का आक्रोश, युवाओं का नेतृत्व और नेताओं का पलायन. लेकिन इन आंदोलनों के पीछे वैश्विक राजनीति की छाया भी दिखती है. कई विशेषज्ञों का मानना है कि नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका में उठी ये लहर केवल घरेलू कारणों से नहीं, बल्कि अमेरिका और चीन के बीच चल रही क्षेत्रीय वर्चस्व की लड़ाई का हिस्सा भी हो सकती है.

केपी शर्मा ओली ने परंपरा को तोड़ा 
नेपाल के परिप्रेक्ष्य में देखा जाए, तो केपी शर्मा ओली को चीन समर्थक माना जाता है. उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद परंपरा को तोड़ते हुए अपनी पहली विदेश यात्रा भारत की बजाय चीन की की थी. वहाँ उन्होंने बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत 41 मिलियन डॉलर की आर्थिक सहायता प्राप्त की. यह चीन की दक्षिण एशिया में प्रभाव बढ़ाने की रणनीति का हिस्सा था, जैसे श्रीलंका में हुआ था.

आंदोलन 100 % अमेरिका के द्वारा रचित... SL Kanthan 
दूसरी ओर, अमेरिका ने नेपाल में "मिलेनियम चैलेंज कॉम्पैक्ट" नामक परियोजना के तहत 500 मिलियन डॉलर की सहायता को पुनर्जीवित किया. यह योजना सड़क और ऊर्जा के बुनियादी ढांचे को सुधारने की थी, लेकिन चीन समर्थक खेमे ने इसे अमेरिकी हस्तक्षेप के तौर पर देखा. वहीं इस पूरे विरोध प्रदर्शन पर राजनीतक विश्लेषक SL Kanthan ने यहां तक कह दिया कि यह आंदोलन 100 % अमेरिका के द्वारा रचित है, जो पूरी दुनिया में अपनाई गई एक रणनीति का हिस्सा है. इस रणनीति के तहत देश के युवाओं के भड़काकर वर्तमान सरकार को गिराना और फिर उस देश में अपनी पसंद के सरकार को बैठाना. 

बांग्लादेश और श्रीलंका से मिलती घटनाएं: संयोग या रणनीति?
बांग्लादेश में भी पिछले वर्ष अमेरिका और प्रधानमंत्री शेख हसीना के बीच तनातनी बढ़ गई थी. अमेरिका ने उनके चुनाव को “गैर-विश्वसनीय और अवैध” बताया था. कुछ समय बाद हसीना की सरकार गिर गई थी. जिसके बाद शेख हसीना ने अमेरिका पर खुल कर आरोप लगाए थे कि अमेरिका ने एक रणनीतिक द्वीप (St. Martin’s Island)  पर अपनी एयरबेस की मांग की थी. जिसको ठुकराने की वजह से उनकी सरकार को गिरा दिया गया. श्रीलंका में भी राजपक्षे सरकार BRI के तहत भारी कर्ज़ में डूबी थी और अंततः वह दबाव में आकर सत्ता से बाहर हुई. नेपाल की स्थिति अब लगभग वैसी ही होती जा रही है.

नेपाल में नेतृत्व का संकट और राजनीतिक थकावट
नेपाल में 2008 से अब तक 14 बार सरकारें बदल चुकी हैं, जिनमें अधिकतर गठबंधन सरकारें रही हैं. यही कारण है कि राजनीतिक स्थिरता कभी नहीं बन पाई. ओली, प्रचंड और देउबा जैसे पुराने नेता लगातार सत्ता में आते-जाते रहे हैं, लेकिन उनके ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप लगातार लगते रहे हैं. नतीजतन, युवाओं में गहरी निराशा और गुस्सा पनपता रहा है. हाल ही में शुरू हुआ “Nepokid” कैंपेन इसी गुस्से का उदाहरण था, जिसमें नेताओं के बच्चों की आलीशान जीवनशैली पर सवाल उठाए गए.

जनता अब किसी नए विकल्प की तलाश में
राजशाही की वापसी की मांग और नया भूचाल राजनीतिक विफलताओं और धर्मनिरपेक्षता के “असफल प्रयोग” से निराश होकर कई लोग अब नेपाल में राजशाही की वापसी की मांग कर रहे हैं. यह भी एक संकेत है कि जनता अब किसी नए विकल्प की तलाश में है—चाहे वह लोकतंत्र के बाहर से ही क्यों न हो.

क्या नेपाल अगला शिकार है वैश्विक राजनीति का?
नेपाल में जो हो रहा है, वह महज एक सोशल मीडिया बैन की प्रतिक्रिया नहीं है. यह वर्षों से चल रहे असंतोष, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी और राजनीतिक अस्थिरता का विस्फोट है, जिसे वैश्विक शक्तियां विशेषकर अमेरिका और चीन अपनी-अपनी रणनीतियों के तहत भुनाने की कोशिश कर रही हैं. जैसे श्रीलंका और बांग्लादेश में सत्ता परिवर्तन हुआ, वैसे ही नेपाल में भी सत्ता के गलियारे बदलने के संकेत हैं. सवाल यह नहीं है कि कौन सरकार चला रहा है, बल्कि यह है कि कौन चला रहा है पीछे से?

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09 September 2025, 06:46 PM IST

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