दोस्त बनकर दगा दे गया रूस और चीन, अब लावारिस पड़ा ईरान... इजरायल ने सही वक्त पर कर दिया वार
मध्य पूर्व में जारी ईरान-इजरायल जंग अब एक बेहद संवेदनशील और खतरनाक मोड़ पर पहुंच चुकी है. 13 जून 2025 को इजरायल ने ईरान की सैन्य और परमाणु ठिकानों पर जो जबरदस्त हमला किया, वह सिर्फ एक सैन्य ऑपरेशन नहीं बल्कि एक रणनीतिक मास्टरस्ट्रोक था. सबसे बड़ी बात यह रही कि इस मुश्किल वक्त में ईरान को अपने सबसे खास माने जाने वाले रणनीतिक साझेदार, रूस और चीन से कोई मदद नहीं मिली.

मध्य पूर्व में उथल-पुथल मचाने वाली ईरान-इजरायल जंग अब एक नए मोड़ पर है. 13 जून 2025 को इजरायल ने ईरान पर जो हमला किया, वह केवल सैन्य कार्रवाई नहीं, बल्कि एक रणनीतिक चाल भी थी. इस हमले में ईरान की परमाणु और सैन्य क्षमताओं को गंभीर नुकसान पहुंचा. लेकिन सबसे चौंकाने वाली बात ये रही कि इस मुश्किल घड़ी में ईरान को न तो रूस का साथ मिला और न ही चीन खुलकर उसके समर्थन में आया.
ईरान का सबसे बड़ा संकट यह है कि वह अकेला पड़ गया है. उसके पुराने और मजबूत माने जाने वाले रणनीतिक साझेदार जैसे रूस और चीन भी अब उससे दूरी बनाते दिख रहे हैं. वैश्विक राजनीति में यह बदलाव केवल ईरान ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के सामरिक समीकरणों को भी बदल सकता है. आइए विस्तार से समझते हैं कि कैसे ईरान को उसके 'दोस्तों' ने किनारे कर दिया और क्यों इजरायल की टाइमिंग सबसे सटीक मानी जा रही है.
रूस का बुरा दौर, ईरान की मुश्किलें बढ़ी
पिछले एक दशक में रूस और ईरान के रिश्ते बेहद मजबूत हुए थे. यूक्रेन युद्ध के दौरान ईरान ने रूस को ड्रोन और मिसाइल्स की आपूर्ति की थी, जबकि रूस ने तकनीकी और ऊर्जा सहयोग दिया. लेकिन अब रूस खुद यूक्रेन युद्ध में बुरी तरह उलझा हुआ है. न केवल उसकी अर्थव्यवस्था चरमराई है, बल्कि उसकी सैन्य ताकत भी कमजोर पड़ी है.
बीबीसी की रिपोर्ट के मुताबिक, पुतिन ने अब तक ईरान के समर्थन में सिर्फ औपचारिक बयान दिए हैं. सीएनएन ने भी बताया कि रूस, ईरान को और अधिक सैन्य मदद देने से पीछे हट रहा है क्योंकि उसे पश्चिमी देशों की नाराजगी का डर है.
चीन ने भी बनाई दूरी, क्यों खामोश है ड्रैगन?
2021 में चीन और ईरान के बीच 25 साल का रणनीतिक समझौता हुआ था, जिसमें आर्थिक और सैन्य सहयोग का वादा किया गया था. लेकिन इस बार चीन ने भी साफ दूरी बना ली है. इजरायल के हमले के बाद चीन ने केवल ‘शांति की अपील’ की, पर कोई व्यावहारिक कदम नहीं उठाया. रिपोर्ट के अनुसार, चीन वैश्विक मंदी से जूझ रहा है और अमेरिका व यूरोपीय देशों से अपने व्यापारिक रिश्ते खराब नहीं करना चाहता. अगर वह खुलकर ईरान का समर्थन करता है, तो उसकी अर्थव्यवस्था पर गहरा असर पड़ सकता है.
क्यों कोई नहीं आया साथ?
ईरान के पारंपरिक सहयोगी तुर्की, सीरिया और लेबनान भी इस बार खामोश हैं. तुर्की NATO का सदस्य है और वह अमेरिका व यूरोप के साथ अपने संबंधों को खतरे में नहीं डालना चाहता. वहीं, सीरिया और लेबनान में पहले जैसी राजनीतिक स्थिरता नहीं रही. इजरायल के हालिया हमलों ने हिज़बुल्लाह और अन्य ईरानी समर्थकों की ताकत को भी कमजोर किया है.
इजरायल की रणनीतिक टाइमिंग सबसे खास क्यों है?
इजरायल ने बिल्कुल सही समय पर हमला किया. जब ईरान अपने सभी सहयोगियों से कट गया, तभी 13 जून को इजरायल ने उसकी परमाणु और सैन्य क्षमताओं को निशाना बनाया. हमले में कई रिवोल्यूशनरी गार्ड कमांडर और परमाणु वैज्ञानिक मारे गए. बीबीसी की रिपोर्ट कहती है कि इजरायल ने जानबूझकर उस वक्त को चुना जब रूस और चीन दोनों ही पीछे हट चुके थे. साथ ही अमेरिका ने भी इजरायल को ‘ग्रीन सिग्नल’ दे रखा था क्योंकि वाशिंगटन ईरान के परमाणु कार्यक्रम से चिंतित है.
अकेला नए संकट की ओर बढ़ रहा ईरान?
आज की स्थिति में ईरान न केवल कूटनीतिक रूप से अकेला है, बल्कि सैन्य तौर पर भी कमजोर हो गया है. रूस और चीन जैसे मजबूत रणनीतिक साझेदार उसकी मदद नहीं कर पा रहे. ऐसे में इजरायल के हमलों ने उसे और भी संकट में डाल दिया है. यह हमला केवल एक युद्ध नहीं, बल्कि पश्चिम और पूर्व के बीच बढ़ती खाई का संकेत भी है. ईरान की यह स्थिति यह भी दिखाती है कि अंतरराष्ट्रीय रिश्तों में भरोसे से ज्यादा काम आता है ‘हित’.


