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ना अलार्म, ना डॉक्टर... फिर भी जीते हैं 100 साल! भारत का वो गांव जो साइंस को दे रहा है चकमा

जब दुनिया फिटनेस ऐप्स, अलार्म और कैफीन के सहारे दिन शुरू करती है, तब भारत का एक गांव ऐसा भी है जहां लोग बिना किसी तकनीक के हेल्दी और लंबा जीवन जीते हैं। यहां न मोबाइल है, न जिम, न कॉफी – लेकिन फिर भी हर कोई सुबह 4 बजे उठता है।

Lalit Sharma
Edited By: Lalit Sharma

Lifestyle News: भारत के एक घने और शांत आदिवासी इलाके का ए गांव अब भी वही दिनचर्या निभाता है जो सदियों से चली आ रही है। यहां के लोग सुबह 4 बजे खुद-ब-खुद उठ जाते हैं। न कोई अलार्म बजता है, न मोबाइल की घंटी। नदी के ठंडे पानी से नहाना, नंगे पांव खेतों की तरफ चलना और सूरज निकलने से पहले ध्यान करना – यह इनका रोज़ का रूटीन है। सुबह की रोशनी से पहले सिर्फ पत्तों की सरसराहट और पक्षियों की आवाज़ सुनाई देती है, कोई मोबाइल नहीं। जहां शहरों में लोग वॉच पहनकर कदम गिनते हैं, इस गांव के लोग बिना किसी डिवाइस के दिनभर खेतों और जंगलों में 15 से 18 हज़ार कदम चल लेते हैं। पानी भरना, लकड़ी लाना, खेतों में काम करना – सब कुछ शरीर से होता है। यहां का हर इंसान प्राकृतिक रूप से ऐक्टिव है। ना थकावट, ना नींद की शिकायत।

खाना शुद्ध, नींद गहरी और तनाव शून्य

यहां न कोई प्रोसेस्ड खाना है, न ज़रूरत से ज़्यादा नमक-तेल। लोग बाजरे की रोटी, जड़ी-बूटी की सब्ज़ी और ताजे फल खाते हैं। रात को 9 बजे तक पूरी बस्ती सो जाती है – बिना मोबाइल स्क्रॉल किए, बिना ओटीटी शो देखे। यही वजह है कि यहां के बुज़ुर्ग भी जवान दिखते हैं और बीमारी से दूर रहते हैं।

यहां खाने को सिर्फ पेट भरने का ज़रिया नहीं, बल्कि औषधि माना जाता है। हर घर में देसी घी और देशी गाय का दूध मिलता है। बच्चे पेड़ से फल तोड़कर खाते हैं, चिप्स और कोल्ड ड्रिंक जैसे शब्द उनकी ज़ुबान में ही नहीं। जब नींद आती है तो बिस्तर खुद बुलाता है, और जागने की घड़ी सूरज बन जाता है। यहां की हवा तक में ऐसी ताजगी है कि थकान पास नहीं फटकती।

हेल्दी हैबिट्स, हेल्दी हर्ट

डिजिटल नहीं, ये गांव करता है 'नेचुरल डिटॉक्स'। इस गांव में स्मार्टफोन एक विलासिता की चीज़ है। बच्चे मिट्टी में खेलते हैं, बड़ों की बातें सुनते हैं और कहानियों से सीखते हैं। यहां वाई-फाई नहीं, रिश्ते हैं। स्क्रीन टाइम नहीं, साथ बैठकर खाना खाने की परंपरा है। यहां की सुबह पक्षियों की आवाज़ से शुरू होती है, ना कि मोबाइल के नोटिफिकेशन से। दोपहर में लोग पीपल के नीचे बैठकर बातें करते हैं – राजनीति से नहीं, प्रकृति से। महिलाएं साथ बैठकर चरखा कातती हैं, और बच्चे गुलेल और लकड़ी की गाड़ी से खेलते हैं। हर त्यौहार सामूहिक होता है – टीवी से नहीं, टोली से मनाया जाता है। यही वो detox है जो शरीर के साथ आत्मा को भी हल्का करता है।

स्क्रीन नहीं, सुकून चाहिए

साइंस भी मानता है इनकी उम्र लंबी होती है। कई शोध बताते हैं कि प्राकृतिक जीवन जीने वाले समुदायों में डायबिटीज, ब्लड प्रेशर और मोटापा ना के बराबर होता है। यही वजह है कि ऐसे गांवों में 80-90 साल की उम्र में भी लोग बिना चश्मे, बिना दवा और बिना सहारे चल सकते हैं। इनकी लाइफस्टाइल में योग नहीं, लेकिन शरीर अपने आप लचीला बना रहता है। यहां की ज़मीन से जुड़ी दिनचर्या शरीर को हर रोज़ कसरत देती है। खेतों में काम करना, लकड़ियां काटना और पानी भरना – यही उनका जिम है। खाने में जो भी मिलता है वो मौसम के अनुसार होता है – गर्मी में बेल का शरबत, सर्दी में तिल और गुड़। शरीर में चर्बी नहीं, मजबूती दिखती है। डॉक्टरी इलाज नहीं, घरेलू नुस्खे यहां की पहली प्राथमिकता हैं।

उम्र से आगे स्वास्थ्य

अब सवाल आपसे – क्या आप इनकी तरह एक हफ्ता जी सकते हैं? ना इंस्टाग्राम, ना अलार्म, ना प्रोटीन शेक – सिर्फ सूरज के साथ उठना, सीधा-सादा खाना और तन-मन की सफाई। सोचिए, क्या आप अपने मोबाइल को साइलेंट कर सकते हैं – अंदर की आवाज़ सुनने के लिए? एक हफ्ता जिसमें आप सिर्फ खुद से मिलें, अपनी असल ज़रूरतों को पहचानें। जहां आपके दिन की शुरुआत दही और गुड़ से हो, और रात तारे गिनते हुए गुज़रे। जहां किसी को इंप्रेस नहीं करना, सिर्फ संतुष्ट होना है। आप देखेंगे कि थकान नहीं, ताजगी साथ रहती है। ये जीवनशैली कोई सज़ा नहीं, बल्कि एक इनाम है – बस आपको खुद से एक मौका देना होगा।

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18 June 2025, 05:14 PM IST

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