पहले पुरुष, फिर महिलाएं-बच्चे... जब तुर्की बना जल्लाद, 15 लाख मासूमों का बहाया खून, पढ़ें सबसे बड़े नरसंहार की कहानी
साल 1915 में तुर्की के ऑटोमन साम्राज्य ने अर्मेनियाई ईसाई समुदाय के खिलाफ एक भयावह नरसंहार को अंजाम दिया, जिसमें करीब 15 लाख लोगों की जान गई. पुरुषों को मार दिया गया, महिलाओं से बलात्कार हुआ और बच्चों को भूखा-प्यासा रेगिस्तान में पैदल चलने को मजबूर किया गया.

तुर्की का नाम आते ही इतिहास की एक बेहद दर्दनाक घटना याद आती है. ये घटना है 1915 का अर्मेनियाई नरसंहार. यह वो दौर था जब ऑटोमन साम्राज्य ने करीब 15 लाख अर्मेनियाई ईसाई नागरिकों को मौत के घाट उतार दिया. किसी को फांसी पर लटकाया गया, तो किसी को रेगिस्तान में बिना भोजन और पानी के पैदल चलने पर मजबूर किया गया.
इस घटना को लगभग 110 साल हो चुके हैं, लेकिन तुर्की सरकार आज भी इसे "नरसंहार" मानने को तैयार नहीं है. वह कहती है कि युद्ध के समय बहुत सी मौतें हुईं, लेकिन यह साजिशन कत्लेआम नहीं था. हालांकि दुनिया के करीब तीन दर्जन देश इसे 'जनसंहार' की संज्ञा दे चुके हैं.

कब और क्यों हुआ यह नरसंहार?
यह घटना 24 अप्रैल 1915 से शुरू होती है, जब ऑटोमन साम्राज्य के शासकों ने अचानक अंकारा में हजारों अर्मेनियाई बुद्धिजीवियों और नेताओं को गिरफ्तार कर लिया। यह गिरफ्तारी दरअसल उस शक का नतीजा थी जिसमें शासकों को लगा कि अर्मेनियाई ईसाई सोवियत रूस के साथ मिलकर तख्तापलट की साजिश रच रहे हैं. इसके बाद जो कुछ हुआ, वो मानव इतिहास का एक काला अध्याय बन गया.
रेगिस्तान में जबरन मौत की यात्रा
हजारों पुरुषों को ढूंढ-ढूंढकर मारा गया और फिर महिलाओं और बच्चों की बारी आई. यह सिलसिला करीब दो साल तक चला. महिलाओं और बच्चों को जबरन सीरिया और अरब के तपते रेगिस्तानों की ओर पैदल चलने को मजबूर किया गया. रास्ते में लूटपाट, बलात्कार, भूख-प्यास से बिलखते बच्चों की चीखें और जलते हुए गांव..यह सब उन पीड़ितों की भयावह यादें हैं जो आज भी जिंदा बचे लोगों की रूह तक कंपा देती हैं.

तुर्की का इनकार और दुनिया की निंदा
तुर्की अब तक इस नरसंहार को मान्यता नहीं देता. उसका तर्क है कि ये मौतें युद्धकाल में हुई थीं और इसे 'नरसंहार' कहना सही नहीं है. इसके अलावा वह मरने वालों की संख्या (15 लाख) पर भी सवाल उठाता है. हालांकि अमेरिका, फ्रांस, कनाडा, जर्मनी जैसे करीब 30 से ज्यादा देश इसे 'अर्मेनियाई नरसंहार' के रूप में स्वीकार कर चुके हैं. अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने 2021 में इसे आधिकारिक मान्यता दी थी. तुर्की ने इसका पुरजोर विरोध किया, लेकिन बाइडेन ने अपने फैसले में कोई बदलाव नहीं किया.
भारत अभी भी मौन
भारत सरकार ने अब तक इस मुद्दे पर कोई आधिकारिक बयान नहीं दिया है, लेकिन मौजूदा जनभावनाओं और तुर्की के पाकिस्तान के साथ बढ़ते सैन्य संबंधों को देखते हुए यह संभावना जताई जा रही है कि भारत भी जल्द ही अमेरिका और अन्य देशों की लाइन में खड़ा हो सकता है.

अर्मेनियाई समुदाय का अब भी जिंदा है दर्द
इस नरसंहार ने अर्मेनियाई संस्कृति, जनसंख्या और आत्मसम्मान को गहरा आघात पहुंचाया। आज भी दुनिया भर में फैले अर्मेनियाई समुदाय के लोग हर साल 24 अप्रैल को इसे याद करते हैं और न्याय की मांग करते हैं. 1915 का अर्मेनियाई नरसंहार सिर्फ इतिहास का एक अध्याय नहीं, बल्कि वह चीख है जो आज भी इंसानियत से जवाब मांगती है. तुर्की की जिद और इनकार आज भी उस घाव को भरने नहीं दे रहे, जो करीब 110 साल पहले लगाए गए थे.