इंस्टा से छुट्टी, नींद में वापसी! डिटॉक्स कर रही है वो पीढ़ी जो कभी चिपकी रहती थी फोन से
इंस्टाग्राम, स्नैपचैट और वायरल रील्स की दुनिया से अब युवा दूरी बना रहे हैं. Gen Z की एक बड़ी संख्या अब ‘डिजिटल डिटॉक्स’ को अपनाकर बेहतर नींद, मानसिक सुकून और असली रिश्तों की तरफ लौट रही है.

Lifestyle News: सोशल मीडिया ने जेनरेशन Z को वो प्लेटफॉर्म दिया जहां सब कुछ दिखाना जरूरी हो गया. लेकिन अब वही प्लेटफॉर्म थकान, एंग्जायटी और ‘फोमो’ यानी Fear of Missing Out का कारण बन रहा है. दिन भर स्क्रीन पर बिताया गया वक्त उन्हें मानसिक रूप से थका रहा है, जिससे उनकी नींद, एकाग्रता और रिश्ते प्रभावित हो रहे हैं. अब 18 से 30 साल के बीच के युवा खुद तय कर रहे हैं कि कब उन्हें ब्रेक चाहिए. वे कुछ दिनों या हफ्तों तक सोशल मीडिया से पूरी तरह अलग हो जाते हैं. इस प्रक्रिया को ही 'डिजिटल डिटॉक्स' कहा जा रहा है.
'डिजिटल डिटॉक्स' बना नई पीढ़ी का संकल्प
डिजिटल डिटॉक्स के बाद सबसे बड़ा फर्क उनकी नींद में देखा गया. जहां पहले रात भर फोन स्क्रॉल करना आदत थी, वहीं अब बिना स्क्रीन की झिलमिलाहट के चैन की नींद आने लगी है. मानसिक स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मुताबिक, लगातार सोशल मीडिया पर रहना नींद के सर्कल और हार्मोन बैलेंस को बिगाड़ देता है. डिटॉक्स लेने वाले युवाओं ने माना कि अब वे बेहतर नींद लेते हैं, सपने देखते हैं और दिनभर तरोताज़ा रहते हैं.
नींद में दिख रहा है सबसे बड़ा सुधार
सिर्फ नींद नहीं, बल्कि सोशल मीडिया डिटॉक्स के बाद युवाओं के व्यवहार और सोच में भी बदलाव देखा जा रहा है. पहले जो लाइक्स और कमेंट्स के पीछे भागते थे, अब वे असली रिश्तों की गहराई को समझने लगे हैं. वे अब कैफे में बैठकर बातचीत को प्राथमिकता दे रहे हैं, फोन की स्क्रीन से ज़्यादा सामने बैठे व्यक्ति की आंखों में झांक रहे हैं.
असली रिश्तों की तरफ लौट रहा है दिल
एंग्जायटी और स्ट्रेस में भी उल्लेखनीय गिरावट आई है. डिटॉक्स के बाद युवाओं ने माना कि वे कम चिड़चिड़े हो गए हैं, गुस्सा कम आता है और उनका फोकस अब खुद पर है. मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि सोशल मीडिया ब्रेन को हमेशा अलर्ट मोड में रखता है, जिससे शरीर को कभी आराम नहीं मिलता. अब जेन Z अपनी मानसिक शांति के लिए सोशल मीडिया से हटकर किताबें पढ़ रहे हैं, वॉक पर जा रहे हैं या बस खुद से बातें कर रहे हैं.
चिंता कम, खुद से जुड़ाव ज़्यादा
ये ट्रेंड सिर्फ शहरों तक सीमित नहीं. छोटे शहरों और कस्बों में भी युवा अब 'फोमो' की जगह 'जॉय ऑफ मिसिंग आउट' यानी JOMO को महसूस कर रहे हैं. उन्हें अब लगता है कि हर पार्टी, हर ट्रेंड में शामिल होना ज़रूरी नहीं. वे अब जो चीज़ें मिस कर रहे हैं, उनसे मिलने वाला समय उन्हें खुद से जोड़ रहा है. ये बदलाव उनके व्यक्तित्व में आत्मविश्वास ला रहा है.
शहर नहीं, गांव-कस्बे भी बदल रहे हैं
इस बदलाव को बढ़ावा देने के लिए कुछ ऐप्स भी सामने आए हैं जो स्क्रीन टाइम कम करने के लिए रिमाइंडर और ब्रेक मोड देते हैं. कई युवा अब फोन से इंस्टाग्राम हटाकर माइंडफुलनेस ऐप इंस्टॉल कर रहे हैं.डिजिटल वेलनेस अब एक ट्रेंड नहीं, एक आंदोलन बनता जा रहा है—जिसकी अगुआई खुद वो युवा कर रहे हैं जिन्हें कभी इसका सबसे बड़ा यूज़र माना जाता था.